*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षष्ठम - तरंग” ११/१२)*
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**श्री दादूजी ने गलता जाने से मना किया**
आप कही - तहँ नाँही चलें हम,
कृष्ण हिं नन्द सुं काम है काई ।
संत कहें - अब बेगि चलो तुम,
देखहु आचार्य जु प्रभुताई ।
धाम चिताय किये खर योगिन,
कानन में मुद्रा झलकाई ।
कुरम भूप जु सेवक होवत,
तां करि विनती सुखदाई ॥११॥
श्री दादूजी ने कहा - भाई ! हम वहाँक्यों चले ? हमें तो महन्त कृष्णा नन्द जी से कोई प्रयोजन नही ॥ साधुओं ने फिर आग्रह किया - आप एक बार पधारिये, हमारे महन्त जी का चमत्कार देखिये । उन्होंने घमण्डी योगी नाथों को अपनी सिद्धि से खर बना दिया । वे खर कानों में मुद्रा लटकाये फिरने लगे । महन्तजी ने अपने धाम को बहुत प्रसिद्ध किया । उनके प्रभाव से कूर्मवंशी वहाँ का राजा भी उनका सेवक बन गया । उस राजा की विनती सुनकर महन्तजी ने उन खर बने नाथों पर दया की ॥११॥
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**छीतर दासजी दादूजी के शिष्य बन गये**
संत सता खर - रूप निवारत,
योगि जु पाँव परे पनिहारे ।
काष्ठक पंच हु भार किया दत,
लेकर शीश धुणी नित डारे ।
दादु कहें - इत नांहिन योगी जु,
संत सुधीर चले न लगारे ।
छीतर दास जु शिष्य भये तब
संत सदा हरि हैं रखवारे ॥१२॥
अपनी सत्ता से उनका खर - रुप निवारण किया । योगी नाथ महन्तजी के चरणों में गिर पड़े । अब वे आश्रम में पानी भरते हैं, काष्ठ की पाँच भारियाँनित्य धूणी पर लाकर रखते है । उन्हें यही दण्ड दिया गया है । यह सुनकर श्री दादूजी ने कहा - यहाँ उन योगीनाथों जैसा कोई नहीं है, जो उनकी सिद्धि से डरकर उनके सम्प्रदाय में मिल जाय, और उनकी दासता स्वीकार ले । यहाँ तो सब अपने इष्ट में सुधीर है । ये भला किसी के अनुयायी नहीं बनने वाले । छीतरदास जी ने कई प्रश्न किये । दादूजी महाराज ने उत्तर दिये । अयोध्या इतिहास भी सुनाया, जो भी प्रश्न श्री दादू जी से किये सभी का उत्तर मिला । श्री दादूजी का तप− - प्रभाव देखकर छीतरदास तो उसी समय उनका शिष्य बन गया, और बोला - हे महान् संत ! मेरी रक्षा करो । स्वामी ने कहा - श्री हरि ही सबके रक्षक व पालक है ॥२॥
(क्रमशः)
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