रविवार, 10 नवंबर 2013

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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
आत्मार्थी इंद्रियार्थी भेष
कोरा कलश अवाह का, ऊपरि चित्र अनेक ।
क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥५॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कुम्हार की भट्टी का कोरा घड़ा अनेक चित्रदार भी हो, किन्तु वस्तु बिना व्यर्थ है । इसी प्रकार भक्ति रूप वस्तु के बिना केवल भेष बाना धारण किये हुए देखने मात्र के ही हैं । उनसे न तो स्वयं का कल्याण होता है और न जन - समुदाय का ही कुछ कल्याण करते हैं । वे केवल भार रूप ही हैं ॥५॥
भगत भेष देखत भले, भजन बीज उर नाहिं । 
ऐरा केरी बाल ज्यूं कणक नहीं तिन माहिं॥
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बाहर दादू भेष बिन, भीतर वस्तु अगाध ।
सो ले हिरदै राखिये, दादू सन्मुख साध ॥६॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! शरीर तो जिनका भेष आदि चिन्ह से रहित है और भीतर अन्तःकरण ज्ञान, भक्ति, वैराग्य से परिपूर्ण है अर्थात् प्रभु की लय में मन स्थिर हो रहा है । ऐसे मुक्त - पुरुषों की आज्ञा में कहिए, उनके उपदेश में, साधक पुरुषों को स्थिर रहना चाहिए । तब ही उनका कल्याण है ॥६॥
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दादू देखे वस्तु को, बासन देखे नांहि ।
दादू भीतर भर धर्‍या, सो मेरे मन मांहि ॥९॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! तत्त्ववेत्ता पुरुष तो वस्तु को देखते हैं, ‘बासन’ कहिए बर्तन अर्थात् वर्ण आश्रम के शरीर को नहीं देखते । जिस शरीर में ब्रह्मानन्द रूपी वस्तु भरी है, उसी को हम कहिये, विवेकी पुरुष आदर और सम्मान देते हैं । वह भक्त और जनसमुदाय की सेवा करने वाला सेवक हमारे मन में बसता है । वही परमेश्‍वर को प्रिय है ॥९॥
(श्री दादूवाणी - भेष का अंग)
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साभार : "मंजिल मिल ही जायेगी भटकते ही सही, गुमराह तो वो है जो घर से निकले ही नहीं" ~
सम्राट चंद्रगुप्त ने एक दिन अपने प्रतिभाशाली मंत्री से कहा- 
"कितना अच्छा होता कि तुम अगर रूपवान भी होते।"

मंत्री ने उत्तर दिया, 

"महाराज रूप तो मृगतृष्णा है। आदमी की पहचान तो गुण और बुद्धि से ही होती है, रूप से नहीं।"

"क्या कोई ऐसा उदाहरण है जहाँ गुण के सामने रूप फीका दिखे।" चंद्रगुप्त ने पूछा।

"ऐसे तो कई उदाहरण हैं महाराज, मंत्री ने कहा, "पहले आप पानी पीकर मन को हल्का करें बाद में बात करेंगे।"

फिर उन्होंने दो पानी के गिलास बारी बारी से राजा की ओर बढ़ा दिये।

"महाराज पहले गिलास का पानी इस सोने के घड़े का था और दूसरे गिलास का पानी काली मिट्टी की उस मटकी का था। अब आप बताएँ, किस गिलास का पानी आपको मीठा और स्वादिष्ट लगा।" 

सम्राट ने जवाब दिया- "मटकी से भरे गिलास का पानी शीतल और स्वदिष्ट लगा एवं उससे तृप्ति भी मिली।" 

वहाँ उपस्थित महारानी ने मुस्कुराकर कहा, "महाराज हमारे प्रधानमंत्री ने बुद्धिचातुर्य से प्रश्न का उत्तर दे दिया। भला यह सोने का खूबसूरत घड़ा किस काम का जिसका पानी बेस्वाद लगता है। दूसरी ओर काली मिट्टी से बनी यह मटकी, जो कुरूप तो लगती है लेकिन उसमें गुण छिपे हैं। उसका शीतल सुस्वादु पानी पीकर मन तृप्त हो जाता है। अब आप ही बतला दें कि रूप बड़ा है अथवा गुण एवं बुद्धि?"

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