*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” २५/२६)*
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*पुर्व अवतार की कथा टीला को दिखाना*
*मनोहर - छन्द*
स्वामीजी पूरब रुप, टीला को दिखाये जिन,
देखि के चकित होत सन्तन - प्रताप ही ।
कहीं रूप गिरि पर, कहुं तो समाधि करे,
कहीं रूप द्रुम डाले, तपत है ताप ही ।
कहीं रूप धूणी पर, जटाजूट शीश धरे,
कहीं रूप झूला झूले पाँचों अग्नि आप ही ।
पवन संयोग तांके आक्रति में शबद होत,
रोम रोम रंरंकार, जपत है जाप ही ॥२५॥
तब स्वामीजी ने प्रसन्न होकर टीलाजी को अपने पूर्व अवतार के दर्शन कराये । संत प्रताप से ध्यान में देखते हुये वे आश्चर्य से चकित होने लगे । किसी अवतार में दादूजी पर्वत पर तपस्या कर रह हैं तो किसी अवतार में समाधिस्थ हैं । कभी वृक्ष शाखा पर आसन लगाये हुये हैं तो कभी धूणी जगाये तप रहे हैं । कभी जटाजूट धारी बने हुये हैं तो कभी पाँचों अग्नियों के बीच झूल रहे हैं । पवन के स्पर्श मात्र से उनकी आकृतियों के रोम - रोम से राम - राम की ध्वनि निकल रही है । रोम - रोम से ररंकार का अखण्ड जाप हो रहा है ॥२५॥
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अपनो स्वरूप ॠषि, देखत चकित शिष्य,
स्वामी को स्वरूप दिव्य सब सुखराशी है ।
कठिन तपस्या करि, तब आज्ञा दीन्ही हरि,
ताहिं को धरत ध्यान दादू अविनाशी है ।
अब डर नाहिं तोहि, टीला तूं भगत मोहि,
अंग के हजूरी होय पंथ को उपासी है ।
टीला कहे - सुनो गुरु, अब आश मम पूरो,
जीवन - उद्धार काज मूरति प्रकाशी है ॥२६॥
टीलाजी ने अपना स्वरूप भी देखा - वे एक ॠषि हैं, श्री दादूजी की सेवा में संलग्र हैं । दादूजी का रूप दिव्य प्रकाश से आलोकित है । कठिन तपस्या में रत दादूजी को श्री हरि की आज्ञा होती है, तदनुसार वर्तमान स्वरूप बालक रूप में धारण किया जाता है । यह सब देखकर टीलाजी चकित रह गये, वे अवर्णनीय सुख के सरोबर डूब से गये । अब उन्हें समझ में आया कि अविनाशी श्री दादूजी अपने इष्टदेव श्री हरि का ध्यान क्यों करते रहते हैं । स्वामीजी ने कहा - हे टीला ! अब तुम्हें कोई डर नहीं है, तुम तो मेरे पूर्व अवतार के भक्त हो । मेरे रूप की सेवा हजूरी करते हुये ब्रह्मपंथ की उपासना करो । टीला ने कहा - हे गुरुदेव ! आपने मेरी सब आशा पूर्ण कर दी, अब बस यही इच्छा है कि आप मेरा उद्धार कर देना । आपने तो जीवों के उद्धार हेतु ही यह मूर्ति स्वरूप धारण की ॥२६॥
(क्रमशः)
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