शनिवार, 23 नवंबर 2013

आशिक अमली साधु सब.४/२४०

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*परिचय का अंग ४/२४०*
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*आशिक अमली साधु सब, अलख दरीबे जाय ।*
*साहिब दर दीदार में, सब मिल बैठे आय ॥२४०॥*
दृष्टांत - गुरु दादू आमेर में, डहरे माधवदास ।
भेजी भेंट जुवार की, अलख दरीबे वास ॥१९॥
“२४० की साखी के अलख दरीबे जाय” पर दृष्टांत है - प्रेमी संत अलख दरीबे - सत्संगरूप बाजार में जाकर अपना मन ब्रह्म की भेंट करते हैं, वैसे ही माधवदासजी ने ब्रह्म स्वरूप गुरु दादूजी को सत्संग सभा में जुवार भेंट की थी । माधवदासजी विचरते हुये डहरे ग्राम में गये तब एक भक्त ने दूधियां जुवार उनके आगे रख कर कहा- भगवन् ! पाइये । 
माधवदासजी ने सोचा - नया अन्न है, पहले गुरुजी को जिमाकर ही जीमना चाहिये । फिर ध्यान द्वारा देखा तो गुरु दादूजी आमेर में सत्संग सभा में स्थित थे । माधवदासजी ने अपनी योगशक्ति से वह जुवार दादूजी के सामने रख दी । दादूजी अपनी योग शक्ति से जान गये कि माधवदास ने डहरे ग्राम से मुझे जिमाने के लिये भेजी है । 
दादूजी के शिष्य तथा भक्तों ने पूछा - यह जुवार अकस्मात कहाँ से आई ? तब दादूजी ने उक्त कथा सुना दी और कु़छ दाने स्वयं ने जीमे और कु़छ - कु़छ दानों का प्रसाद सबको दिया और पुनः माधवदासजी के पास भेज दी । माधवदासजी भी सत्संग सभा में थे । 
वहां अकस्मात् जुवार देख कर सत्संगियों ने पू़छा तब माधवदासजी ने उक्त कथा सुना दी और स्वयं उसमें से प्रसाद लेकर सब को दादूजी का प्रसाद कह कर दिया । माधवदासजी ने जैसे जुबार की भेंट भेजी थी वैसे ही साधक को सत्संग सभा में अपना मन गुरुजी को भेंट करना चाहिये ।
द्वितीय दृष्टांत - 
लाहौर शाह हुसेनजी, एक जुलाहा और ।
इत ही हो उत तो नहीं, बाल दिखाया भौर ॥२०॥
लाहौर निवासी हुसेनशाह और एक जुलाहा दोनों ही सूरति रूप शरीर से प्रतिदिन मक्का जाते थे । एक दिन जुलाहे ने हुसेनशाह से कहा - आप तो मक्का नहीं जाते यहां ही रहते हो । मक्का में तो आप को कभी भी नहीं देखा । फिर जब मक्का गये तब दोनों ही सत्संग में बैठे थे । हुसेनशाह ने जुलाहे का एक बाल उखाड़ लिया और दूसरे दिन लाहोर में प्रातः काल ही जुलाहे को कहा - कल मक्का के सत्संग में तुम्हार बाल उखाड़ा था । उसने कहा - देख वह बाल यही है । उसने कहा - हाँ यही है । हुसेनशाह - यह मैंने ही उखाड़ा था । 
सोई उक्त २४० की साखी में कहा है कि अलख दरीबै(सत्संग) मे सब ही संत मिलकर बैठते है । जैसे हुसेनशाह और जुलाहा दोनों मक्का के सत्संग में बैठे थे वैसे ही प्रेमी संत सत्संग रूप प्रभु के दरबार में बैठकर प्रभु का साक्षात्कार करते हैं । तथा सुरति रूप शरीर से प्रभु के पास भी उच्चकोटि के संत पहुँच जातें हैं । यह संतों की प्रेम साधना पर निर्भर है । सब संतों को यह योग्यता नहीं मिलती है ।
(क्रमशः)

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