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卐 सत्यराम सा 卐
७. सुन्दरी श्रृंगार(श्री दादू वाणी)
सो - धन पीवजी साज सँवारी,
अब वेगि मिलो तन जाइ बनवारी ॥टेक॥
साज शृंगार किया मन मांही,
अजहूँ पीव पतीजै नांही ॥१॥
पीव मिलन को अहिनिशि जागी,
अजहूँ मेरी पलक न लागी ॥२॥
जतन - जतन कर पंथ निहारूँ,
पीव भावै त्यों आप सँवारूं ॥३॥
अब सुख दीजे जाऊँ बलिहारी,
कहै दादू सुन विपति हमारी ॥४॥
टीका ~ हे प्रियतम प्रभो ! इस जीवात्मा को धन्य है, जिसने पतिव्रता (धन =) स्त्री की तरह, हृदय को ‘साज’ शुद्ध करके आपके स्वागत के लिये दैवी सम्पदा से सुसज्जित किया है । हे बनवारी ! हे प्रीतम ! अब विरहीजनों को जल्दी ही दर्शन दीजिये, नहीं तो आपके वियोग में यह शरीर चला जायेगा । मेरे पातिव्रत धर्म पर अभी तक आप नहीं पतीजै = विश्वास प्रकट नहीं किया है ।
मैं आप से मिलने के लिये रात - दिन प्रतीक्षा करती रहती हूँ, एक पलक भी गाफिल नींद में नहीं सो पाती हूँ । हम तो मन इन्द्रियों को अन्तःकरण में एकाग्र कर करके, आपकी प्राप्ति का मार्ग देख रहे हैं । हे प्रीतम ! जैसे आपको हम विरहीजन भावें, वैसा कहो, तो वैसे ही हम अपने आपको विरह भक्ति द्वारा सँवारें । हे प्रभु ! अब आप अपने दर्शनों का हमें सुख दीजिये, हम आपकी बार - बार बलिहारी जाते हैं । हम विरहीजनों के दुःख को अब आप सुनिये ।
शेर ~
जल शील का स्नान करके,
तिलक तन का कीजिये ।
भक्ति प्रेमा माल गल में,
साज यह सज लीजिये ।
करनी के कपड़े पहन के,
निष्कामता रंग दीजिये ।
सोलह करो श्रृंगार जिसको
देख प्रीतम रीझिये ॥७॥
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साभार : Bhadra Dhokai
आत्मश्रद्धा से भर जाऊँ, प्रभुवर ऐसी भक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
कईं जन्मों के कृतकर्म ही, आज उदय में आये है।
कष्टो का कुछ पार नहीं, मुझ पर सारे मंडराए है।
डिगे न मन मेरा समता से, चरणो में अनुरक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
कायिक दर्द भले बढ जाय, किन्तु मुझ में क्षोभ न हो।
रोम रोम पीड़ित हो मेरा, किंचित मन विक्षोभ न हो।
दीन-भाव नहीं आवे मन में, ऐसी शुभ अभिव्यक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
दुरूह वेदना भले सताए, जीवट अपना ना छोडूँ।
जीवन की अन्तिम सांसो तक, अपनी समता ना छोडूँ।
रोने से ना कष्ट मिटे, यह पावन चिंतन शक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
|| अज्ञात ||
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