गुरुवार, 21 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(ष.दि.- ११/५)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
षष्ठम दिन ~ 
सखी ! एक नित शत्रु बढ़ावे, 
उसके साथ हुये दुख आवे । 
समझी मैं कटु भाषी प्रानी । 
नहीं, क्रोध अति बली सयानी ॥११॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक का सदा साथ करने से दुख ही आते हैं। बता वह कौन है?” 
वां. वृ. - ‘‘यह तो कटु भाषण करने वाला है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो अतिबली क्रोध है। तू क्रोध के अधीन न होना।” 
सखी ! एक मीठा अति लागे, 
इक आये सो घर से भागे । 
सखि ! हेमन्त धूप घर छाया, 
नहिं, संतोष लोभ मैं गाया ॥१२॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक अति मधुर लगता है किन्तु एक दूसरे के घर में आते ही वह भाग जाता है। बता वह कौन है?” 
वां. वृ. - ‘‘हेमन्त ॠतु के सूर्य की धूप है। घर में छाया आते ही चली जाती है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहीं, सखि ! संतोष बहुत प्रिय लगता है किन्तु लोभ के आते ही हृदय से चला जाता है। तू अपने हृदय में लोभ को न रहने देना और यदि लोभ करे ही, तो हरि भजन आदिक शुभ कर्मों का ही करना जिससे तेरे कल्याण में सहायक हो सके । और सखि ! एक बात और सुन, तू इन कामादिक आसुर गुणों का ठीक-ठाक ज्ञान प्राप्त करने के लिये ‘‘श्री साधक-सुधा” ग्रंथ का १५वां बिन्दु अवश्य पढ़ना । उसके पढ़ने से इन गुणों का स्वरूप, इनसे होने वाली हानियों और इनके त्याग करने से होने वाले लाभों का ज्ञान होगा।” 
वां. वृ.- 
बचनामृत तव पान कर, सखी ! होत अति चैन । 
मन करता सुनती रहूं, निशि दिन तेरे बैन ॥१३॥ 
मम द्वंद्वज दोष नशाय, सखी ! कर काम वही । 
मैं मानूंगी उपकार, आयु भर तोर सही ॥ 
मैं तव चरणों को त्याग, शांति नहिं कहीं लखी । 
मैं धारूंगी तव सीख, शपथ कर कहूं सखी ॥१४॥ 
अब कुछ शिक्षा दे और, कुछक ही समय रहा । 
सखि! था मेरा सौभाग्य, तभी तव संग लहा ॥ 
मैं फिर जाऊँगी गेह, विचारत सीख सभी । 
अरु लव भूलूँगी नांहिं, तुम्हारे बचन कभी ॥१५॥ 
(क्रमशः)

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