शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

= ८४ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
सत्संग नित प्रति कीजिये, 
मति होय नर्मल सार रे,
रूचि प्राण पति सौं उपजे, 
अति लहहिं सुख अपार रे |
मुख नाम हरि हरि उच्चरे, 
श्रुति सुणत गुण गोविन्द रे,
रत ररंकार अखंड धुनि, 
तहं प्रकट पूरण चन्द्र रे |
सतगुरु बिना नहीं पाइए, 
ये अगम उलटो खेल रे, 
कहे दास "सुंदर" देखतां, 
होय जीव ब्रह्म ही मेल रे || 
....... 
दादू पाया प्रेम रस, साधु संगति मांहि । 
फिरि फिरि देखे लोक सब, यहु रस कतहूँ नांहि ॥३३॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त संतों की संगति में परमेश्‍वर का प्रेमाभक्ति रूपी अमृत, साधक पुरुषों ने प्राप्त किया है । लोक - लोकान्तरों में घूम - घूम कर विचार कर देखा, तो मायिक सुख तो बहुत हैं, परन्तु अनन्य भक्तिरूपी यह सुख कहीं भी नहीं प्राप्त होता ॥३३॥
अमी पाताल न पाइये, ना सतसंग अकास । 
प्रत्यक्ष अमृत पाइये, जैमल साधू पास ॥ 
दादू जिस रस को मुनिवर मरैं, सुर नर करैं कलाप । 
सो रस सहजैं पाइये, साधु संगति आप ॥३४॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस ब्रह्मानन्द रूप रस के लिये देव, मनुष्य, मुनीश्‍वर, सब प्रयत्न करते हैं, वह ब्रह्मवेत्ता संतों की संगति में बिना प्रयास ही प्राप्त होता है । क्योंकि उत्तम जिज्ञासुओं के कल्याण के लिये परमेश्‍वर ही संतों के रूप में प्रकट होकर ज्ञान उपदेश करते हैं । जैसे ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल, कबीर साहिब आदि ॥३४॥
बाजिंद साधु संग को, फल कहा वर्णत कोइ । 
तांबा तैं कंचन भयो, पारस परसै सोइ॥ 
संगति बिन सीझे नहीं, कोटि करे जे कोइ । 
दादू सतगुरु साधु बिन, कबहुँ शुद्ध न होइ ॥३५॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! चाहे करोड़ों प्रकार के बहिरंग साधन करो, परन्तु सच्चे ब्रह्मवेता संतों की संगति बिना आत्म - ज्ञान नहीं होता । क्योंकि सतगुरु - कृपा और ब्रह्मवेत्ता संतों की संगति से ही शुद्ध ब्रह्म की उपासना होती है ॥३५॥ 
सत्संगति बिन ज्यों भजन, लहै न सुख की सीर । 
‘परसा’ मिलै न सिंधु को, नदी बिहूणां नीर ॥ 
(श्री दादू वाणी ~ साधू का अंग) 
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साभार : hindi.webdunia.com 
जलचर थलचर नभचर जितने | 
जो जड़ चेतन जीव हैं जितने || 
बुद्धि कीर्ति सद्गति तेज भलाई | 
जब जिस तरह जहाँ जो पाई || 
सब जानो सत्संग प्रभावा | 
लोक वेद में उपाय न दूजा || 
- रामचरितमानस हिंदी (बा. का. २.२-३) 
सत्संगति की और अधिक महिमा बताते हुए तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि सृष्टि में जलचर(जल में रहने वाले), थलचर(भूमि पर रहने वाले), नभचर(आकाश में उड़ने वाले) ऐसे तीन प्रकार के जितने भी जड़ और चेतन जीव हैं, उन सभी ने जितनी भी और जिस भी तरह की बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, तेज और भलाई पाई है, वो सब सत्संग का ही प्रभाव जानना चाहिये. क्योंकि इन सब की प्राप्ति का उपाय समस्त लोकों और वेदों में सत्संग के अतिरिक्त दूसरा नहीं है. सत्संग का अर्थ है सत्त्व गुण के आचरण का अभ्यास करते हुए सत् स्वरुप परमात्मा का निरंतर साक्षात्कार करते रहना.

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