शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(पं.दि.- ७/८)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
पंचम दिन ~ 
जो त्यागे सो जन सुख पावे, जिसका त्याग राम को भावे । 
यह धन धाम सखी ! मैं जानी, नहिं, यह है अभिमान सयानी ॥७॥ 
आं. वृ. - “जिसका त्याग भगवान् को प्रिय होता है और त्यागने वाला भी सुखी होता है । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “धन धामादि हैं । उनको त्याग कर हरि स्मरण करने से प्राणी सुखी होता है ।’’ 
अ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो अभिमान है । अभिमानी को कभी भी शांति नहीं मिलती और न अभिमान भगवान् को प्रिय होता है । तू कोई भी प्रकार का अभिमान न करना, क्योंकि अभिमानियों की अन्त में दुर्दशा ही होती है । रावण, हिरण्यकशपु, वेण और दुर्योधन आदिक की कथायें तूने सुनी ही होंगी । अत: तू अभिमान से दूर ही रहना ।’’ 
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सखी ! एक नारी अस देखी, करत दुखी सबको मैं पेखी । 
यह अवश्य है कुलटा नारी, नहिं सखि ! हिंसा करती ख्वारी ॥८॥ 
आं. वृ. - “सखि ! एक ऐसी स्त्री है, जो प्राय: सभी को दुखी करती है । बता वह कौन है ?’’ 
वां. वृ. - “व्यभिचारिणी होगी ।’’ 
आं. वृ. - “नहिं सखि ! यह तो हिंसा है । हिंसा जिसकी की जाय वह तथा उसके प्रियजन, सज्जन, और परिणाम में करने वाला भी उससे दु:खी ही होता है । इस कारण वह सभी को दु:ख दाता है । तू कभी भी किसी को पीड़ा न देना । पर पीड़न ही तो पाप है, जैसे अपने को दूसरों के कटु बचन आदि से दुख होता है वैसे ही अपने कटु बचनादि से दूसरों को दुख ही होता है अत: किसी भी प्राणी पर दु:ख दाता बचनादिक का प्रयोग नहीं करना चाहिए । जब हम दूसरों को सुखी बनाना चाहेंगे तभी दूसरे हमें भी सुख देना चाहेंगे, यही नीति है ।’’
(क्रमशः)

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