शनिवार, 9 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(पं.दि.- ९/१०)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
पंचम दिन ~ 
एक पुरुष सखि ! ऐसा देखा, 
तम में तेज अधिक तिहिं पेखा । 
दीपक है सखि ! मैंने जाना, 
है यह लोभ सखी ! न पिछाना ॥९॥ 
आं. वृ. - “एक ऐसा पुरुष है जिसका तेज यम में अधिक रहता है । बता वह कौन है ?’’ 
वां. वृ. - “दीपक है । दीपक का प्रकाश अंधेरे में ही अधिक रहता है । सूर्य के उदय होने पर मंद पड़ जाता है ।’’ 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो लोभ है । लोभ की अधिकता अज्ञान में ही रहती है । आत्म-ज्ञान होने पर वह स्वत: ही मंद पड़ जाता है । ज्ञानी पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता । तू भी लोभ को दूर करने के लिये, संतोषी ज्ञानियों का संग किया कर । और अनायास प्राप्त वस्तुओं में ही सदा संतुष्ट रहा कर ।’’ 
देखी एक सखी ! मैं नारी, 
तम में शोभा उसकी भारी । 
कमोदनी समझी मैं हेली, 
राजस वृत्ति चहत नित केली ॥१०॥ 
आं. वृ. - “मैंने एक स्त्री ऐसी देखी है, जिसकी शोभा तम में अधिक होती है । बता वह कौन है ?’’ 
वां. वृ. - कमोदनी है । वह राषि में ही खिलती है ।’’ 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो राजस वृत्ति है । रजोगुणी वृत्ति अज्ञान काल में ही अधिक होती है । ज्ञान होने पर सात्विकी वृत्ति के नीचे दब जाती है । तू भी सदा सात्विक वृत्ति द्वारा राजसवृत्ति को दबाती रहा कर । सात्विक वृत्ति से ही आगे चल कर ब्रह्म ज्ञान होता है और ब्रह्म ज्ञान से मुक्ति होती है ।’’ 
(क्रमशः)

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