शनिवार, 9 नवंबर 2013

जे कबहूं विहरनि मरे ३/८३

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विरह का अंग ३/८३-८५-९५*
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*जे कबहूं विहरनि मरे, तो सुरति विरहनी होइ ।*
*दादू पिव पिव जीवतां, मुवां भी टेरे सोइ ॥८३॥*
प्रसंग व दृष्टांत - 
दादूजी आमेर में, विरही देखे दोय ।
तन छूटे हू सुरति से, पीव पीव नभ होय ॥६॥
उक्त दोहे में प्रसंग कथा व दृष्टांत दोनों हैं । शिष्यों के पू़छने पर ८३ की साखी कही थी और साखी पर दृष्टांत भी है जिन दिनों दादूजी आमेर में निवास करते थे, उन्हीं दिनों में एक दिन आकाश में - पीव - पीव ऐसी ध्वनी दादूजी के शिष्य संतों को सुनाई पड़ी । तब शिष्य संतों ने दादूजी से पू़छा - भगवन् ! आकाश में यह पीव - पीव ध्वनी कौन कर रहा है ? तब दिव्यदृष्टि सम्पन्न दादूजी ने कहा - भगवान् के दो विरही भक्तों के भगवद् दर्शन होने से पहले ही शरीर छूट गये हैं । अतः वे दोनों सूक्ष्म शरीरों से पीव - पीव ध्वनि कर रहे हैं । जब इनको प्रभु का साक्षात्कार हो जायगा, तब यह ध्वनि समाप्त हो जायगी ।
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*ज्यों जीवत मृतक कारणे, गत कर नाखे आप ।*
*यों दादू कारण राम के, विरही करे विलाप ॥८५॥*
दृष्टांत - 
कृष्ण गमन अर्जुन कहा, हस्तिनापुर में जाय ।
तन त्यागा कुंती तभी, मच्छी ज्यों विललाय ॥७॥
भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम पधारने पर अर्जुन ने हस्तिनापुर में जाकर माता कुन्ती को कहा तो कुन्ती सुनते ही कृष्ण वियोग से व्याकुल होकर विलाप करते हुये जैसे मच्छी जल बिना नहीं रह सकती, वैसे ही कुन्ती कृष्ण के बिना धरातल पर नहीं रह सकी, तत्काल प्राणों को त्याग कर कृष्ण के पास जा पहुँची थी । उक्त कथा श्रीमद्भागवत् के मत से है । महाभारत के मत से तो कुन्ती धृतराष्ट्र के साथ वन को गई थी और धृतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती तीनों ही वनाग्नि से जल गये थे । दोनों ही मत कल्प भेद से ठीक हैं । एक कल्प में कृष्ण वियोग से तन त्यागा था ।
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*दादू - देखे का अचरज नहीं, अण देखे का होय ।*
*देखे ऊपर दिल नहीं, अण देखे को रोय ॥९५॥*
प्रसंग कथा - 
दोय सिद्ध स्वामी पै आये, घोड़ा देख रु मन मुसकाये । 
स्वामी कहैं कहां दिल दीया, नीले कान सु आगे कीया ॥८॥
दादूजी की कीर्ति सुनकर दो सिद्ध दादूजी से मिलने को आमेर आये थे और शिष्यों से पू़छा - दादूजी के समने बैठ गये फिर थोड़ी देर में ही अपनी दूर दृष्टि रूप सिद्धि से काबुल में दौड़ने वाले घोडों को देखकर परस्पर कहने लगे ये घोड़े दादूजी को नहीं दीखते होंगे । 
दादूजी ने दोनों की बात ध्यान में ही जान ली थी । फिर बाहर वृत्ति होने पर दादूजी ने सिद्धों को कहा - आप लोगों ने इस मायिक प्रपंच में ही मन क्यों लगाया है ? जिस सिद्धि के लिये आप लोगों ने महान् साधना किया है, फिर भी वह आप लोगों की अधूरी ही है । सिद्ध बोले - कैसे ? दादूजी - आप लोग काबुल में दोड़ने वाले घोड़ों को देख रहे हो यदि यह सिद्धि आपकी पूरी है तो बताओ आगे वाले घोड़े का विशेष चिन्ह क्या है ? सिद्ध - यह तो हमें ज्ञात नहीं ही सका, दोनों घोड़े दौड़ते हुये दीखते हैं । दादूजी - नीले कानों वाला घोड़ा आगे है ।
फिर दादूजी ने उन सिद्धों को भी अपनी योगशक्ति से दिखाया तब दोनों ने मान लिया और कहा - आपकी जितनी सूक्ष्म दृष्टी हम लोगों की नहीं है । फिर दादूजी ने उन दोनों सिद्धों को उक्त ९८ की साखी से उपदेश किया था । उन्होंने मान लिया था ।
(क्रमशः)

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