*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” २३/२४)*
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**टीला जी के संका पानी में डूबना**
व्योम गिरा तब ही सुनि संतन,
दादू गुरु सब ध्यान कराई ।
तोरि तो दौर इन्ही लगि संतन !
इन दौर मेरे लगि भाई ।
जीव अनन्त उधारन को जग,
ये नर रूप धर्यो सुखदाई ।
यों हरि - शब्द भयो सुख पावन,
दादुजि नाम लियो तिर आई ॥२३॥
उसी समय आकाशवाणी सुनाई दी - “संतो ! तुम सब अपने सद्गुरु के नाम का ही जाप करो । तुम्हारी भक्ति साधना की दौड़ इन्हीं तक संभव है, और इनकी पहुँच मेरे तक हैं अनन्त जीवों का उद्धार करने के लिये ही इन्होंने संसार में स्वरूप धारण किया है ।” इस तरह श्रीहरि की वाणी सुनकर सब ‘दादूराम - मंत्र’ का जाप करते हुये पार उतर गये ॥२३॥
श्री दादू जी ने कहा -
दादू ऐसा कौन अभागिया, कछु दिढ़ावे और ।
नाम बिना पग धरण को, कहो कहां है ठौर ॥
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**टीला जी द्वारा स्तुति**
संत समाज गये पुर भीतर,
जोरहिं पाणि करें परनामी ।
आप तपोनिधि निर्मल निर्गुण,
सिद्ध निरामय अन्तर यामी ।
हो सुखकंद नमो निर्द्वन्द्व जु,
दीन दयालु निरंजन स्वामी ।
हो भवसागर - तारण कारण,
यों नर रूप धर्यो शुभनामी ॥२४॥
संत समाज सुखपूर्वक नगर में पहुँच गया । आसन पर विराजने पर शिष्य - टीलाजी ने हाथ जोड़कर गुरुजी की स्तुति वंदना की - हे गुरुदेव ! आप निर्मल तपोनिधि हैं, निर्गुण निरामय अन्तर्यामी सिद्ध है । हे निर्द्वन्द्व, सुखकंद ! दीनों के दयालु स्वामीजी ! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है । हे निरंजन - उपासक ! शरणागत जीवों के भवसागर से पार करने के लिये ही आपने स्वरूप धारण किया है । आपका शुभनाम ही उद्धार करने वाला है ॥२४॥
(क्रमशः)
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