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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*परिचय का अंग ४/१५९*
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*अलख नाम अन्तर कहै, सब घट हरि हरि होइ ।*
*दादू पाणी लौण ज्यों, नाम कहीजे सोइ ॥१५९॥*
दृष्टांत -
सिवली ज्यों रस पीजिये, जान सके नहिं कोय ।
प्रकट करा मनसूर ने, सब जग वैरी होय ॥१०॥
उक्त १५९ की साखी के पूर्वार्ध पर दृष्टांत है - सिवली संत साखी के पूर्वार्ध के समान ही मन वाणी के अविषय परमात्मा का हृदय के भीतर ही निरन्तर स्मरण करते थे । अतः उन्हें कोई नहीं जान सका । इससे उनके जीवन में विघ्न भी नहीं आया ।
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उसके विपरीत उसी चिन्तन को मंसूर ने प्रकट रूप में किया । इसी से उसके सब वैरी हो गये । ऐसा भी सुना है कि सिवली मंसूर की बहिन का ही नाम था । मंसूर की बहिन अन्य बाइयों के साथ एक सूफी संत के सत्संग में रात्रि को जाती थी । किसी कुजन ने मंसूर को कहा - तुम्हारी बहिन रात्रि को घर के बाहर जाती है, अतः उसका आचरण ठीक नहीं हैं । मंसूर ने कहा - मैं पता लगाऊँगा ।
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एक दिन जब मसूर की बहिन अन्य बाइयों के साथ सूफी संत के सत्संग में जाने लगी तो मंसूर भी उनसे छिपकर उनके पीछे पीछे गया । वे सत्संग सभा में जाकर बैठ गई । मंसूर भी वहां छिपकर खड़ा हो गया । प्रसंग - अनलहक(मैं ही ब्रह्म हूँ) का चला । मंसूर उसे ठीक समझने के पश्चात वहीं से उच्च स्वर मे अनलहक की ध्वनि करने लगा ।
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काजी मुल्ला आदि मंसूर को कहते थे - हुअलहक (वह ईश्वर है) जपो किन्तु मंसूर कहते थे, अलग कैसे हो सकता हूँ । जब इन्होंने नहीं माना तो बगदाद के खलीफा ने आज्ञा दी कि मंसूर के दंडे आदि की चोट प्रत्येक व्यक्ति मारे । जो नहीं मारेगा उसे प्राणान्त दंड मिलेगा । इससे मंसूर की बहिन ने भी एक गुलाब का फूल जैसे देवता के चढ़ाते हैं वैसे ही इनके शिर पर डाला । उसका स्पर्श होते ही मंसूर जोर से चिल्लाये ।
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बहिन ने पू़छा - आप दंडे आदि की चोटों से तो नहीं चिल्लाते और फूल के स्पर्श होते ही कैसे चिल्लाये । मंसूर - दंडे आदि मारने वाले तो अज्ञानी हैं किन्तु तुम तो ज्ञानी हो । ज्ञानी होकर भी अपने प्राणों के लोभ से तुमने ऐसा किया है । इसीसे मुझे दुःख हुआ है । अन्त में बगदाद में ही मंसूर को शूली पर चढ़ा दिया । देखिये प्रकट रूप में करने से मंसूर की कितना कष्ट उठाना पड़ा । अतः भीतर ही भजन करना अति श्रेष्ठ है ।
(क्रमशः)
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