रविवार, 17 नवंबर 2013

सुरती रूप शरीर का ४/१६१


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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*परिचय का अंग ४/१६१* 
*सुरती रूप शरीर का, पिब के परसे होइ ।*
*दादू तन मन एक रस, सुमिरण कहिये सोइ ॥१६१॥*
दृष्टांत - 
दादूदास कबीर की, पीपा की पुनि सोइ ।
तरी जाहज पंडा जिया, चँदवा प्रत्यक्ष जोइ ॥११॥
साखी के पूर्वार्ध पर तीन दृष्टांत हैं - 
प्रथम कथा - दादूजी आमेर मैं उपदेश कर रहे थे । उस समय आमेर नरेश मानसिंह भी सत्संग में बैठे थे । दादूजी के चोले की बाँह से अकस्मात् पानी पड़ा । उसे देखकर राजा आदि सबने आश्चर्य पूर्वक दादूजी से पू़छा - भगवन् ! आपके चोले की बाँह में पानी कहाँ से आया ? दादूजी ने कहा - समुद्र में व्यापारियों का एक जहाज डूब रहा था । उसमें बैठे हुये हिंगोल गिरि और कपिल मुनि दोनों संतों ने जहाजवालों को कहा - संत दादूजी से प्रार्थना करो उनकी कृपा से अवश्य तैर जायगा । उन लोगों ने प्रार्थना की तब उसको सुनकर मैं सुरति(वृत्ति) रूप शरीर से वहाँ गया और.... 
राम संभालिये रे, विषम दुहेली बार ॥टेक॥
मंझ समुद्रां नावरी रे, बूड़े खेवट बाज ।
काढ़नहारा को नहीं, एक राम बिन आज ॥१॥
इस चार पाद के भजन से प्रभु की प्रार्थना करके वृत्ति रूप शरीर(संकल्प के बने हुये शरीर) से ही मैंने उसके हाथ का सहारा लगाया कि वह तैर गया किन्तु परमात्मा ने आप लोगों को दिखाने के लिये यहाँ बैठे हुये स्थूल शरीर के चोले की बाँह से दिखा दिया है । फिर चोले की बाँह की राजा यादि ने निचोड़ के तथा चख कर देखा तो समुद्र का ही ज्ञात हुआ । फिर कु़छ दिन में हिंगोलगिरि और कपिलमुनि आदि आमेर आये और उक्त जहाज संतारण और हिंगोल गिरि, कपिल मुनि का विशेष विवरण दादू पंथ परिचय के पर्व ४ अध्याय १६ में देखें और जिस भजन से प्रार्थना की थी वह दादूवाणी का १३ वाँ है ।
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द्वितीय कथा - काशी में कबीरजी की बहुत प्रतिष्ठा हो जाने से उनके भजन में विघ्न होन लगा । बहुत लोग उनके पास आने लगे । तब कबीर ने वह भीड़ मिटाने के लिये एक वेश्या से कहा - बहिन ! तुम थोड़ी हमारी सहायता करो । वेश्या - जो आज्ञा । कबीर - घर पर जनता की भीड़ रहती है, उससे हमारे भजन में भारी विघ्न होता है । तुम बाजार में मेरे साथ चलो । मैं हाथ में एक गंगाजल की बोतल लेकर तुम्हारे साथ काशी के मुख्य २ बाजारों में घूमकर आने से लोगों की श्रद्धा कम हो जायगी और भीड़ मिट जायगी । 
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फिर वैसा ही किया । उससे भीड़ मिट गयी । जहाँ तहाँ कबीर को निन्दा होने लगी । उसे सुनकर संतों को अति दुःख होने लगा । तब संतों का दुःख मिटाने के लिये एक दिन कबीर राजसभा में गये । राजा आदि ने उनका कु़छ भी सम्मान नहीं किया । कबीर जहाँ स्थान मिला वहीं बैठ गये और थोड़ी देर में जिस पात्र में लोग मदिरा समझते थे उससे सभा में जल डाल दिया । राजा ने पू़छा - जल क्यों डाला है ? कबीर - जगन्नाथपुरी में एक पंडे का पैर जलने लगा था । उसको बचाने के लिये आग बुझाई है । 
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यह सुनकर राजा ने पता लगाया तो कबीर की बात सत्य निकली । राजा ने रानी से कहा - कबीर की पंडा को बचाने की बात सत्य निकली है । फिर रानी के परामर्श से राजा और रानी ने कबीर से क्षमा याचना की । कबीर ने सुरति(वृत्ति) रूप शरीर से ही पुरी जाकर पंडा को बचाया था । स्थूल शरीर तो राज सभा में था ।
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तृतीय कथा - एक एकादशी की रात को टोडा नरेश सूर्यसेन मल्ल के सामने जागरण हो रहा था । पीपाजी अकस्मात् समाज के मध्य खड़े होकर हाथ मलने लगे । सब ने देखा उनके हाथ काले हो गये हैं । राजा भी पास ही थे । कारण पू़छा तब पीपाजी ने कहा - द्वारका में भगवान् के सामने जागरण हो रहा है । भगवान् के चँदवे के चिराग लग जाने से चँदवा जलने लगा था, उसको मैंने हाथों से मलकर बुझाया है । उसी से हाथ काले हुये हैं । किन्तु लोगों के पीपाजी की बात समझ में नहीं आई फिर राजा ने पता लगाया तो सत्य निकली । 
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द्वारका पीपाजी का सुरति(वृत्ति) रूप शरीर ही गया था । स्थूल शरीर तो टोडा में जागरण के मध्य था । साखी में कहा है - परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने से संत का वृत्ति रूप शरीर बनकर दूर देश में जाकर करने योग्य कार्य कर आता है । उक्त तीनों संतों ने प्रभु का साक्षात्कार किया था अतः उनके वृत्ति रूप शरीर बनकर उक्त कार्य कर आये थे । 
(क्रमशः)

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