रविवार, 17 नवंबर 2013

घट परिचय सब घट लखे ४/१५७

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*परिचय का अंग ४/१५७*
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*घट परिचय सब घट लखे, प्राण परिचय प्रान ।*
*ब्रह्म परिचय पाइये, दादू है हैरान ॥१५७॥*
साखी के प्रथम पाद पर दृष्टांत - 
सोरठा - 
बणिया भया दिवान, जोधाणां के नृपति का ।
सुख दुख किया प्रमान, शीश पोटली ढ़ोण का ॥७॥
एक वैश्य पुत्र था तो बुद्धिमान् किन्तु दरिद्री होने के कारण तैल, लवण, हल्दी आदि वस्तुयें अपनी पीठ पर लाद कर छोटे ग्रामों मे बेचने जाता था । उस समय सब वस्तुयें अन्न से दी जाती थी । बेचकर आता तब उसके शिर पर अन्न की पोट रहती थी । उससे उसे बोझे का कष्ट रहता था और नगर में प्रवेश करते समय उस नाज की चुंगी लगती थी । उससे उसे औैर भी अधिक दुःख होता था । 
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इधर जोधपुर नरेश का प्रधानमंत्री मर गया था और उक्त वैश्य का भाग्योदय का समय भी आ गया था । राजा ने प्रजा से परामर्श किया, मंत्री किस को बनाया जाय । तब उक्त वैश्य की बुद्धिमत्ता और सौजन्य का परिचय लोगों ने राजा को दिया तब राजा ने भी उसकी परीक्षा करके उसे प्रधानमंत्री बना लिया और उसके व्यवहार तथा कार्य कुशलता से राजा उस पर अति प्रसन्न रहने लगे । 
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तब ईर्ष्यालु व्यक्तियों ने उक्त मंत्री की राजा के पास निन्दा करना आरंभ कर दिया और मंत्री के दोष भी खोजने लगे । उक्त मंत्री ने अपनी प्रथम अवस्था फटी जूती, फटी पगड़ी, फटी अंगरखी और फटी धोती एक रेशमी रुमाल में बाँधकर एक मंजूषा में रख लिया था और राज सभा में जाने के समय उनका दर्शन करके जाता था । किसी निन्दक ने उसे ऐसा प्रति दिन करते देखकर अनुमान कर लिया किं यह राजा का उत्तम रत्न चुरा लाया है और उसको रोज देखता है । 
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उसने राजा को कहा तब राज प्रथम तो अनसुनी कर गया किन्तु उसने कहा - यह घर से राजसभा में आता है तब उस रत्न को देखकर आता है । आप उस समय इसके घर जाकर प्रत्यक्ष देख लें । राजा उसी समय गया जब उक्त वस्तू देखकर मंजूषा में रख रहा था । राजा ने कहा - क्या रखा है ? हमें भी दिखाओ । मंत्री ने दिखा दिया । उनको देखकर राजा ने उनके रखने कारण पू़छा तो मंत्री ने अपनी कथा सुनादी । 
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राजा ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा । मंत्री वैश्य ने मांगा - वस्तु बेचकर नाज लाते है, उसका कर बन्द करदें । राजा ने कहा - इससे तुमको क्या लाभ है ? मंत्री - इससे मुझे बहुत दुःख होता था अतः सब को ही दुःख होता है । राजा ने वह कर बन्द कर दिया । यह घट परिचय है । उसने अपने दुख के समान ही सब का जाना था ।
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*प्राण परिचय प्रान* इस पर दृष्टांत - 
साधु जी के देखतां, दिई भैंस के चोट ।
सबन दिखाई देहु मत, दिया बारणा ओट ॥८॥
दादूजी के शिष्य साधुरामजी हरियाणां प्रान्त के ग्राम मॉडोठी में भजन करते थे । एक दिन साधुरामजी स्थान के उत्तर के मार्ग पर चबूतरे पर बैठे हुये प्रातःकाल दांतुन कर रहे थे । इन के पास एक भैंस आकर वहां तृण खाने लगी । इतने में ही पशुओं को आगे ले जानेवाला एक युवक आया । साधुरामजी प्राण परिचय अर्थात् एकात्मभाव की स्थिति वाले संत थे । उनकी अवस्था का तो युवक को ज्ञान नहीं था । अतः भैंस को आगे ले जाने के लिये युवक ने भैंस को दो चार दंड़े मारे । वे ही साधुरामजी की पीठ पर जा लगे । 
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साधुरामजी की पीठ पर दंड़ों के चिन्ह उधड़ आये । थोड़ी देर में ही दंड़े मारनेवाले युवक का पिता साधुरामजी को स्नान कराने आया और पीठ पर दंड़ों के चिन्ह देखकर बोला - भगवन् । ये दंडो की चोटें आपके किस ने मारी हैं ? साधुरामजी - तुम्हारे पुत्र ने । यह सुनकर भक्त को अति दुःख हुआ । वह स्नान कराकर घर गया और पुत्र को डांटते हुये कहा - तूने स्वामीजी के दंडे क्यों मारे ? पुत्र - मैंने तो नहीं मारे । पिता - स्वामीजी तो मिथ्या नहीं बोलते । पुत्र - यह तो मैं भी जानता हूँ, मैं आपके साथ चलता हूँ । 
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पुत्र पिता के साथ गया औेर साधु रामजी को प्रणाम करके बोला - भगवन् ! मैंने आप के दंडे कब मारे थे ? साधुरामजी - आज ही मारे थे । युवक - मैंने आज तो क्या इस जीवन भर में भी नहीं मारे हैं, पूर्व जन्मों का तो मुझे पता नहीं है । साधुरामजी - आज मै दांतुन कर रहा था तब तुमने भैंस के मारे थे । युनक - भैंस के तो मारे थे । साधुरामजी - वे ही दंडे मेरे लगे हैं । 
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यह सुनकर भक्तों ने सोचा - इधर तो लड़के प्रतिदिन पशुओं के दंडे मारेंगे और स्वामीजी प्रतिदीन ही पिटते रहेंगे । इससे उस मार्ग को बन्द करके पश्चिम की ओर पशु और मानवों के लिये मार्ग बनवा दिया । पश्चिम की ओर पशु और मानवों के लिये मार्ग बनवा दिया । 
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पश्चिम की ओर भूमि बहुत ऊंची थी इससे दिवाल के नीचे पानी जाने के लिये एक बडी मोरी रख दी थी किन्तु अब उस स्थान पर तिबारा बना दिया गया है । पानी तिबारे के नीचे से जाता है । यह मैं स्वयं देखकर आया हूं । प्राण परिचयवाले सभी को अपना स्वरूप देखते है । अतः एकात्मं भाव से दूसरे की चोट वे झेल लेते हैं । साधुरामजी का विशेष विवरण दादू पंथ परिचय के पर्व ४ अध्याय १६ में देखें ।
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*ब्रह्म परिचय पाइये* इस पर दृष्टांत - 
संत चले मग जात थे, परिचय ब्रह्मस्वरूप ।
राक्षस काट्या पीठ में, ब्रह्म किया तद्रुप ॥९॥
आत्मस्वरूप ब्रह्म के ज्ञाता एक संत मार्ग से जा रहे थे । एक राक्षस ने उन्हें जाते देखकर उनकी पीठ में अपने मुख से काटा । उन्होंने अपना मुख पीछे की ओर करके कहा - तू भी ब्रह्म ही है । इतना कहते ही वह ब्रह्म भाव को प्राप्त हो गया अर्थात उसका आत्मा तो ब्रह्मस्वरूप था ही । ज्ञानी संत की दृष्टि पड़ने से और उनके मुख से महावाक्य सुनने से उसका अज्ञान नष्ट हो गया और उसे मैं ब्रह्म हूँ यह निश्चय हो गया ।

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