गुरुवार, 14 नवंबर 2013

= प. त./३३-४ =

*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” ३३/३४)* 
**मुकुन्द भारती जी ने कहा बहुत दिनों से दर्शन की इच्छा थी** 
संत कहे - मिलि बालपने मधि, 
मैं नहिं भूलत, आप भुलाये । 
खेल रहे द्विज के घर बालक, 
ताँ हम आपहिं दर्शन पाये । 
वर्ष सताइस यों मग जोवत, 
देखन की मन में सरसाये । 
आज मिले मन मोद भयो अति, 
स्वामि कहें - तुम देत बड़ाये ॥३३॥ 
संत बोले - हम आपकी बाल्यावस्था में मिल चुके है । मैं नहीं भूला, अवस्था दोष से आपको याद नहीं रहा होगा । आप अहमदाबाद में नागर विप्र के घर शिशुक्रीड़ा कर रहे थे, तब हमने आपके दर्शन किये थे । सत्ताईस वर्ष बीत गये - आपकी राह देखते - देखते । दर्शन की प्रतीक्षा में मन सदा व्याकुल रहता था । आज दर्शन मिलने पर मन में अतीव प्रसन्नता हो रही है । दादूजी ने कहा - आप स्नेहवश मुझे बड़ाई दे रहे हैं, यह आपका बड़प्पन है ॥३३॥
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संत कहें - तुमको हरि - आयसु, 
पंथ अखंड अद्वैत उपासी । 
आप कहें - तुम जानत हो सब, 
ज्ञान विज्ञान किये चरचा सी । 
दीनदयालु मुकुंद रहे संग, 
पांच दिना लगि संत पचासी । 
हर्षित चकित भयेहु मुकुन्द जु, 
आयसु पाय चले सुखराशी ॥३४॥ 
संत फिर बोले - आपको श्री हरि की आज्ञा हुई है, ब्रह्म पंथ की स्थापना करो, अखंड अद्वैत की उपासना करो । स्वामीजी ने कहा - आप सिद्ध अन्तर्यामी हैं, सब कुछ जानते है । फिर दोनों में ब्रह्मज्ञान विज्ञान की विविध चर्चायें होती रही । संत मुकुन्द भारती जी पाँच दिन तक दादूजी के साथ सत्संग चर्चा करते रहे । साथ में पचासी संत भी सत्संग का आनन्द लेते रहे । श्री दादूजी के उत्तम ब्रह्म ज्ञान से भारती जी हर्षित भी थे और चकित भी । फिर आज्ञा लेकर अपने धाम को सिधार गये ॥३४॥ 
(क्रमशः)

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