गुरुवार, 14 नवंबर 2013

= शूरातन का अंग २४ =(३३/३४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*शूरातन का अंग २४*
*दादू जब जागै तब मारिये, वैरी जिय के साल ।*
*मनसा डायनि, काम रिपु, क्रोध महाबली काल ॥३३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जब अन्तःकरण में अनात्म - वासना उत्पन्न होवे, आसुरी गुणों की फ रना होने लगे, तभी इनको वैराग्य और विवेक द्वारा मारिये, क्योंकि यह जीव के शत्रु हैं । जीव को स्वस्वरूप में नहीं लगने देते, मनसा तो मानो डाकिनी ही है, कामदेव तो मानो महाशत्रु है और क्रोध तो मानो प्रलय काल की अग्नि ही है । यह जीव को जलाते और खाते रहते हैं ॥३३॥
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*पंच चोर चितवत रहैं, माया मोह विष झाल ।*
*चेतन पहरै आपने, कर गह खड़ग संभाल ॥३४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ये पांच ज्ञानेन्द्रियां पांचों विषयों का चितवन करती रहती हैं । माया और माया का कार्य, मोह ममता आदि, और संसार के नाना प्रकार के विषयों की विषज्वाला, ये सब माया का जाल है । हे साधक ! आयु के चारों अवस्थाओं में, बुद्धिरूपी हाथ में ज्ञान रूपी खड़ग लेकर, तत्पर बना रहे ॥३४॥
(क्रमशः)

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