शनिवार, 9 नवंबर 2013

= शूरातन का अंग २४ =(२३/२४)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*शूरातन का अंग २४*
*हरि भरोसा* 
*दादू अंग न खैंचिये, कहि समझाऊँ तोहि ।* 
*मोहि भरोसा राम का, बंका बाल न होहि ॥२३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे साधक परमेश्‍वर की प्राप्ति के लिये शूरवीरता धारण करके फिर अपने तन - मन को परमेश्‍वर की अनन्य भक्ति से अलग नहीं करते । अर्थात् प्रभु - भक्त होकर साधन मार्ग से नहीं हटना, क्योंकि तन - मन सब परमेश्‍वर के अर्पण कर दिया तो, फिर उनको डर भी क्या है ॥२३॥ 
*बहुत गया थोड़ा रह्या, अब जीव सोच निवार ।* 
*दादू मरणा मांड रहु, साहिब के दरबार ॥२४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! आयु का बहुत समय परमेश्‍वर की आराधना किये बिना चला गया । अब तो एक हिस्सा आयु बची है । अपने अन्तःकरण में, भौतिक सुख - दुःख आदि की चिन्ता को छोड़कर परमेश्‍वर के दरबार में, अर्थात् अन्तःकरण में, निर्द्वन्द्व होकर शूरवीरता के सहित नाम स्मरण करो ॥२४॥ 
तैं जीव सुख किये घने, दुख भोगे ये अनन्त । 
अब सुख दुख को पीठ दे, सुन्दर भज भगवन्त ॥ 
रैन अर्धगत, मन अथिर थके जू पिंजर पांव । 
पातर कहै पखावची, मधुरो मधुरो बाव ॥
बहुत गई थोड़ी रही, थोड़ी हू अब जाय । 
पातर कहै पखावची, गहरो ढोल बजाय ॥ 
व्यतीतश्चिरकालस्तु, स्वल्पा तिष्ठति शर्वरी । 
कुरु चित्तसमाधानं सतां स्याच्चित्तरंजनम् ॥ 
दृष्टान्त ~ एक राजा ने बहुत दिनों से महावत की तनखा रोक रखी थी । अपनी जवान लड़की की शादी नहीं करी थी । अपने जवान लड़के को युवराज पद नहीं दिया था । एक रोज दरबार में रात्रि को एक गायिका गाना और नृत्य कर रही थी । उसी रात को महावत अंकुश लिये बैठा था, राजा को मारने के लिये । राजकन्या सोने के गिलास में जहर मिलाकर बैठी थी कि राजा पानी मांगेगा, तो जहर दे दूंगी, क्योंकि मेरी शादी नहीं करता । राजकुमार सोने के मूठ की तलवार लिये बैठा था उसने विचारा कि इस तलवार से राजा का सिर उतार दूंगा । मुझे युवराज नहीं बनाता । 
रात्रि के तीन पहर खत्म हो गये, गायन और नृत्य करते करते । चौथे पहर में गायिका बोली मृदंग बजाने वाले, अब दूगन पर मत बजा, क्योंकि मेरे नृत्य करते - करते पांव थक गये हैं । तब मृदंग वाला बोला ~ ‘‘गतं बहु चिरंकालम्’’ बहुत रात बीत गई । अपने चित्त में धैर्य रख और इस सभा में सज्जनों के मन को प्रसन्न कर ले । 
यह सुनते ही महावत्त को ज्ञान हो गया कि यह मुझे कहता है कि राजा को मत मार, राजा की बहुत उमर खत्म हो गई । तूं क्यों अपयश लेता है । राजपुत्र मुझे सब तनखा दे देगा, राजा बनने पर । लड़की ने सोचा, ‘‘मुझे उपदेश करता है, कि अपयश क्यों लेती है ? राजा के बाद राजकुमार मेरा भाई, मेरी शादी कर देगा । राजपुत्र ने सोचा, मुझे उपदेश करता है कि राजा को मारकर क्यों कलंक लेता है ? कुछ दिन बाद राजा अपने आप ही मर जायेगा, फिर मैं ही राज करूंगा ? यह सोचकर महावत ने सोने का अकुंश गायिका को दे दिया । राजकन्या ने जहर फेंककर गिलास गायिका को दे दिया । राजपुत्र ने सोने की मूठ की तलवार दे दी । 
राजा ने सोचा कि यह मुझे उपदेश करता है कि राजा तेरी बहुत आयु तो चली गई, अब थोड़ी रह गई । इन सबके मन को राजी कर दे । राजा ने महावत को तनखा दे दी । कुछ दिन में कन्या की शादी कर दी । राजकंवर को राजगद्दी दे दी और राजा ने जंगल में जाकर, तप करके, अपना उद्धार कर लिया । ब्रह्मऋषि सतगुरु महाराज कहते हैं कि ‘‘बहुत गया थोड़ा रह्या, अब जीव सोच निवार ।’’
(क्रमशः)

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