शनिवार, 14 दिसंबर 2013

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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दुर्लभ दर्शन साध का, दुर्लभ गुरु उपदेश ।
दुर्लभ करबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख ॥१५४॥ 
टीका - पूर्व पूण्य बिना उत्तम, प्रभु भक्त साधु संतों का दर्शन और उनका सत्संग प्राप्त होना दुर्लभ है, और यदि सतगुरु मिल भी जावें तो उनका सत्य उपदेश करना कठिन है, और जो दया करके उपदेश भी कर दें, तो फिर चिरकाल से विषयों में आसक्ति वाला मन उसका पालन नहीं करता । और जो कदाचित् आज्ञा का पालन भी कर लेवे, तो इस लोक के स्त्री - धन - पुत्र के सुख, मान, प्रतिष्ठा तथा परलोक के ऋिद्धि - सिद्धि आदि, इन सब प्रलोभनों को छोड़कर परमात्मा का साक्षात्कार करना तो अति कठिन है ॥१५४॥ 
परन्तु फिर भी सतगुरु महाराज कहते हैं कि निष्काम भाव से सच्चे साधु महात्माओं का सत्संग करके और श्रद्धा सहित गुरुजनों का उपदेश सुनकर निरन्तर उसके अनुसार अनन्य भक्ति से परमात्मा के पवित्र नामों के जपने से ही जीवों का कल्याण सम्भव है । इसके अलावा परमात्मा की प्राप्ति का और कोई साधन नहीं है । 
दुर्लभ: सद्गुरु देव: शिष्य - सन्तापहारक: ।
अतिविचित्र: शान्तश्च शुद्धभक्तिसमन्वित: ॥ 
जोगेश्वर गये जनक के, मिल्यो बाथ भर सोइ । 
नाथ अल्प जीवन यह, बार बार नहीं होइ ॥
दृष्टांत :- एक समय ऋषभदेव के पुत्र नौ जोगेश्वरों ने विचार किया कि राजा जनक ज्ञानी हैं तो चले, उनकी परीक्षा करें । यह विचार कर राजा के नगर के समीप पहुँचे । राजा जनक ने सुना कि नौ जोगेश्वर आ रहे हैं । वह बहुत प्रसन्न हुआ । थाल में पूजा की सामग्री सजाकर पण्डित और मन्त्रियों को साथ लेकर सामने लेने को चला । दूर से राजा ने विचार किया कि ये तो नौ हैं और मैं एक हूँ । किस प्रकार इनसे मिलूं ? क्योंकि शरीर क्षणिक है । तब राजा ने यह सोचा कि एक दफा नौ के नौ से बाथ भरके मिल लूं । फिर यथायोग्य पूजा करूँगा । इतने में नौ जोगेश्वर समीप आए । राजा दौड़कर भुजा पसार कर नौ के नौ से बाथ भरके मिला । जोगेश्वर बोले :- राजन् ! यह
क्या मिलना ? तब राजा बोला :-
दुर्लभो मानुषो देही, देहीनां क्षण - भंगुर: । 
तत्रापि दुर्लभो मन्ये, बैकुण्ठ - प्रिय - दर्शनम् ॥ 
हे नाथ ! प्रथम तो मनुष्य का देह मिलना कठिन है और फिर यह शरीर एक क्षण में नाश होने वाला है । क्या पता इसका कब नाश हो जावे ? इसके उपरान्त भगवान् बैकुण्ठवासी विष्णु, उनके प्रिय भक्त, आप लोगों का दर्शन होना दुर्लभ है । मैंने विचार किया कि एक से मिलूं और कदाचित् शरीर छूट जावे, तो अन्य से मिलने की इच्छा रह जाएगी । इसलिए मैंने विचार किया कि एक दफा सबसे बाथ भरके मिल लूं । यह कहकर राजा ने विधिपूर्वक योगेश्वरों की पूजा की और फिर बड़े हाव - भाव से लाकर महलों में ठहराया । अनेक प्रकार से सेवा की और उनका ज्ञानोपदेश सुनकर कृत - कृत्य हो गया । 
(श्री दादू वाणी ~ गुरुदेव का अंग) 
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साभार : Bhakti ~ 
शबरी के बेर .... 
भील जाति की एक कन्या थी श्रमणा, जिसे बाद में शबरी के नाम से जाना गया । बाल्यकाल से ही वह भगवान श्रीराम की अनन्य भक्त थी। उसे जब भी समय मिलता, वह भगवान की पूजा-अर्चना करती। बड़ी होने पर जब उसका विवाह होने लगा तो अगले दिन भोजन के लिए काफी बकरियों की बलि दी जानी थी ।
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यह पता लगते ही उसने अपनी माता से इस जीव हत्या का विरोध किया पर उसकी माता ने बताया कि वे भील हैं और यह उनके यहाँ का नियम है कि बारात का स्वागत इसी भोजन से होता है ! वह यह बात बर्दास्त नही कर सकी और चुप चाप रात के समय घर छोड़ कर जंगलों की और निकल पड़ी ! 
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जंगल में वह काफी ऋषि मुनियों की कुटिया पर गयी पर भील जाति की होने के कारण सबने उसे दुत्कार दिया ! आखिर में मतंग ऋषि ने उसे अपने आश्रम में रहने के लिए आश्रय दिया । शबरी अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। मतंग ऋषि ने अपनी देह त्याग के अवसर पर उसे बताया कि भगवान् राम एक दिन उसकी कुटिया में आएंगे ! वह उनका इन्तजार करे ! वही तुम्हारा उद्धार करेंगे । दिन गुजरते रहे।
शबरी रोज सारे मार्ग की और कुटिया की सफाई करती और टकटकी लगाये प्रभु राम का इन्तजार करती ! ऐसे करते २ वह बूढी हो चली, पर इन्तजार नही छोड़ा क्यूंकि गुरु के वचन जो थे ! आखिरकार शबरी की इन्तजार की घड़ियाँ ख़त्म हुई और भगवान श्रीराम छोटे भाई लक्ष्मण के साथ माता सीता की खोज करते करते मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे।
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सबरी ने उन्हें पहचान लिया। उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया। शबरी भागकर कंद−मूल लेने गई। कुछ क्षण बाद वह लौटी। कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने श्री भगवान के अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था। उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। 
श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे । उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए। श्रीराम की कृपा से शबरी का उसी समय उद्धार हो गया । भगवान् ने कभी नीच उंच का, गरीब अमीर का, भेदभाव नहीं किया । शबरी की कथा बहुत शिक्षाएं प्रदान करती है, उनमे से एक यह भी है कि अपनी ख़ुशी के लिए निरीह जानवरों का वध नहीं करना चाहिए । गुरु मतंग ने भी शबरी को अपनाते हुए कोई भेद भाव नहीं किया । साथ २ शबरी ने भी अपने गुरु वचनों पर पूर्ण विश्वास कर उम्र भर प्रभु राम का इन्तजार किया ।भगवान भाव के भूखें हैं । — 

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