शनिवार, 14 दिसंबर 2013

= १०४ =


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卐 सत्यराम सा 卐
दादू तो पीव पाइये, कश्मल है सो जाइ ।
निर्मल मन कर आरसी, मूरति मांहि लखाइ ॥११२॥ 
हे जिज्ञासुओं ! जैसे दर्पण(शीशा) स्वच्छ हो तो, उसमें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाई देता है । इस प्रकार जिज्ञासुजन अपने अन्त:करण के मल विक्षेप को धोकर आरसी रूपी मन को निष्पाप करके स्वस्वरूप का दर्शन करे ॥११२॥ 
मनस्तु सुखदु:खानां, कारणं विधिबुद्धिन: । 
निर्मले चकृते तस्मिन् सर्वभवति निर्मलम् ॥ 
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दादू तो पीव पाइये, कर मंझे विलाप ।
सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परगट होवै आप ॥११३॥ 
हे जिज्ञासुजनों ! परमात्म देव तुम्हारे हृदय में ही विद्यमान है । उनका अपने आप में ही स्वआत्मरूप से अनुभव करो । किस रीति से ? सो बताते हैं कि अन्तर्गत कहिए, अन्त:करण में ही परमेश्वर का विलाप करिये ॥११३॥ 
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दादू तो पीव पाइये, कर सांई की सेव ।
काया मांहि लखाइसी, घट ही भीतर देव ॥११४॥ 
हे जिज्ञासुजनों ! भीतर ईश्वर के चिंतन रूप परमेश्वर की सेवा करिये, क्योंकि परम दयालु परमेश्वर सर्वत्र व्यापक हैं । वे अपने विरही भक्तों के विलाप को सुनकर उनकी सेवा को स्वीकार करके परमेश्वर कभी भी प्रकट हो सकते हैं । इसलिए सदैव परमेश्वर की भक्ति में ही लीन रहो ॥११४॥
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दादू तो पीव पाइये, भावै प्रीति लगाइ ।
हेजैं हरि बुलाये, मोहन मंदिर आइ ॥११५॥ 
हे जिज्ञासुजनों ! श्रद्धापूर्वक परमेश्वर में प्रीति लगाओ और मन, सुरति को एकाग्र करने से अपने प्रीतम प्यारे के दर्शन होंगे । जो सब पापों को हरने वाले परमेश्वर स्वरूप हरि हैं, उनका "हेजैं" कहिए, विरह-प्रेम की व्याकुलता से पुकारिये । हे मोहन ! मेरे हृदय रूपी मंदिर में प्रकट हो ॥११५॥
(श्री दादू वाणी ~ विरह का अंग)
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साभार : Gauri Mahadev ~ 
गीतोक्त ज्ञान की उपलब्धि हो जाने पर कुछ और जानना शेष ही नहीं रहता । गीता में अपने अपने स्थान पर कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों का विशद और पूर्ण वर्णन है । तथापि यह सत्य है कि गीता एक भक्तिप्रधान ग्रन्थ है । उसका प्रारम्भ और पर्यवसान दोनों भक्ति में ही हैं । आरम्भ में अर्जुन “शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” कहकर भगवान की शरण आते हैं और अंत में भगवान “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” कहकर शरणागति का ही समर्थन करते हैं । अर्थात सब कुछ त्याग कर एकमात्र भगवाना की शरण चले जाना भक्ति का ही एक अभिन्न अंग है ।
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“ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्यस्य मत्परा:, 
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्, 
भवामि नाचिरात्पार्थं मय्यावेषितचेतसाम् ॥”(१२/६,७) – 
जो मेरे परायण हुए भक्तजन समस्त कर्मों को मुझमें अर्पण करके अनन्य ध्यानयोग से मेरा ही चिंतन करते हैं मृत्यु रूप संसार सागर से मैं उनका शीघ्र ही उद्धार करता हूँ ।
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निश्चित रूप से गीता की भक्ति अविवेकपूर्वक की हुई अन्धभक्ति अथवा अज्ञान से प्रेरित आलस्यमय कर्मत्यागरूप जड़ता नहीं है, वरन् क्रियात्मक और विवेकपूर्ण है । बारहवें अध्याय में भक्ति के लक्षण बताते हुए कहा गया है :
“मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय, 
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ।
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरं, 
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥
अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव,
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।
अथैतदप्यशक्तोSसि कर्तुं मद्योगमाश्रित:, 
सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान् ॥” (१२/८-११)
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इसी प्रकार भाव के लक्षण बताते हुए कहा है कि –
“अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च,
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुख: क्षमी ।
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:, 
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ॥ 
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:,
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ।
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:,
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित: ॥”(१२/१३,१४,१६,१८) 
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गीता की भक्ति में न तो पाप को स्थान है न आलस्य को । जो शरणागत भक्त भगवदर्पण बुद्धि से समस्त कार्य करता है उससे पाप हो ही नहीं सकता । इसी प्रकार जो भक्त समस्त जगत को परमात्मा का स्वरूप समझकर सबकी सेवा करना अपना कर्तव्य समझता है वह निष्क्रिय आलसी हो ही नहीं सकता । इसीलिये कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा है । 
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“तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुसर युध्य च,
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।” (८/७) –
युद्ध करो, किन्तु मेरा स्मरण करते हुए और मुझी में मन और बुद्धि को अर्पित कर यही तो है निष्काम कर्म संयुक्त भक्ति योग । गीता में सर्वत्र कर्म में भक्ति का और भक्ति में कर्म का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । गीता के अनुसार अनन्य भाव से भगवान के स्वरूप में स्थित होकर भगवान की आज्ञा मानकर भगवान के लिये मन वाणी और शरीर से समस्त कर्मों का आचरण करना ही भगवान की भक्ति है ।
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“स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरः,
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दन्ति तच्छ्रुणु ।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्,
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥” (१८/४५,४६) 
– अपने अपने स्वाभाविक कर्मों में लगा हुआ मनुष्य भगवतप्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है । जिस परमात्मा से समस्त भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत उसी प्रकार व्याप्त है जिस प्रकार बर्फ़ जल से व्याप्त रहता है उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा अर्थात उसे ही अपना सब कुछ समझकर उसी का चिंतन करते हुए उसी की आज्ञा के अनुसार मन वाणी और शरीर से उस परमेश्वर के ही लिये अपने स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करते हुए मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है ।
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कल्याण प्राप्ति के मुख्य तीन उपाय हैं – 
निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग अर्थात सांख्ययोग और भक्ति अर्थात ध्यान योग । किन्तु उपासना रहित कर्म जड़ होने से कभी मुक्तिदायक नहीं हो सकते और न ही उपासना रहित ज्ञान प्रशंसनीय होता है । इस प्रकार गीता में भक्ति ज्ञान और कर्म दोनों में ही ओत प्रोत है । 
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परमेश्वर को अंशी व सेव्य तथा स्वयं को अंश व सेवक मानकर फलासक्ति को त्याग कर जो कर्म किये जाते हैं वहीं निष्काम कर्मयोग होता है । और ब्रह्म में स्थित रहकर प्रकृति द्वारा होने वाले समस्त कर्मों को प्रकृति का विस्तार और माया मात्र मानकर ब्रह्म में जो अभेद स्थिति होती है वह है सांख्य योग । इन दोनों ही निष्ठाओं में भक्ति भरी पड़ी है ।
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शरणागत भक्त सदा कर्तापन के अभिमान से रहित होता है । वह एकीभाव से स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित परमात्मा को भजता हुआ, समस्त कर्म करता हुआ भी ईश्वर में वर्तमान होता है । क्योंकि उसके समस्त अनुभव ईश्वर के अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं होते ।
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“सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:, 
सर्वथा वर्तमानोSपि स योगी मयि वर्तते ॥” (६/३१)
उत्तम साधक सांसारिक कार्य करते हुए भी अनन्य भाव से परमात्मा का चिन्तन करते हैं । हम जैसे साधारण साधक परमात्मा में मन लगाने का प्रयत्न तो करते हैं, किन्तु अनभ्यास और आसक्ति के कारण ध्यानमग्न होते हुए भी उनका मन विषयों में चला जाता है । किन्तु जिन्हें भगवान से विशेष अनुरक्ति है वे भगवान का स्मरण करते हुए समस्त कार्य करते हैं और उन्हें समस्त चराचर जगत ईश्वरमय ही प्रतीत होता है ।
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“बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञान्वान्मां प्रपद्यते,
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥” (७/१९)
इस प्रकार प्रेम भक्ति का एक अभिन्न अंग है । और यही अनन्य प्रेम ईश्वर को साकार रूप से प्रत्यक्ष कराता है । भक्त की दृष्टि में ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वगुणसंपन्न, सर्वसमर्थ, सर्वसाक्षी, और सत् चित और आनन्दधन है । अनन्य भक्ति ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन का साधन है ।
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“भक्त्या तु अनन्या शक्य अहमेवंविधोSर्जुन,
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥” (११/५४)
ऐसे ही अनन्य भक्तों के लिये नारदभक्तिसूत्र में कहा गया है -
“कंठावरोधरोमांचाश्रुभि: परस्परं लपमाना: पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ।
तीर्थान्कुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मान्कुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीन्कुर्वन्ति शास्त्राणि ॥” (६८/६९) 
– ऐसे भक्त भक्ति में इतने भावविह्वल हो जाते हैं कि उनके कंठ अवरुद्ध हो जाते हैं अर्थात उनसे कुछ कहते नहीं बनता, उनकी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होती है, तथा वे रोमांचित होकर परस्पर सम्भाषण करते हैं । ऐसे भक्त अपने कुल व पृथिवी को भी पवित्र करते हैं । वे जहाँ पहुँच जाते हैं वहाँ तीर्थ सुतीर्थ हो जाता है, जो कर्म वे करते हैं वे ही सत्कर्म हो जाते हैं, और जिन शास्त्रों का वे अध्ययन मनन अथवा उपदेश करते हैं वे ही शास्त्र सत् शास्त्र हो जाते हैं ।
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पद्मपुराण में कहा गया है ~
“आस्फोटयन्ति पितरो नृत्यन्ति च पितामहाः, 
मद्वंशे वैष्णवो जातः स नस्त्राता भविष्यति ॥” 
पितृ पितामह प्रसन्न होकर नृत्य करते हैं कि हमारे वंश में भगवद्भक्त उत्पन्न हुआ है, वह निश्चित ही हमारा उद्धार करेगा । इस प्रकार के अनन्य भक्तों के लिये ईश्वर कभी अदृश्य नहीं होता क्योंकि वे सबमें ईश्वर को और सबको ईश्वर में देखते हुए एकीभाव से ईश्वर में लीन हो जाते हैं “यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति, तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥” (गीता ६/३०)
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गीता भगवान के साकार और निराकार दोनों ही रूपों को मानती है । (४/६-९, ९/११,२६,३४) भगवान कहते हैं कि मैं अविनाशी और अजन्मा होकर भी तथा समस्त भूत प्राणियों का ईश्वर होकर भी अपनी प्रकृति को आधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ । जो पुरुष तत्व से यह जान लेता है कि मेरा वह जन्म और कर्म अलौकिक है वह पुनर्जन्म को न प्राप्त कर मुझे ही प्राप्त होता है । 
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मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिये विचरण करते हुए मुझे साधारण मनुष्य ही समझते हैं । शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेम पूर्वक अर्पण किया हुआ पत्र पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित ग्रहण करता हूँ । मेरी शरण आया हुआ आत्मा को मुझमें एकीभाव करके मुझे ही प्राप्त होगा ।
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ये सब उदाहरण ईश्वर के साकार स्वरूप के प्रतिपादक हैं । ईश्वर के निराकार स्वरूप के प्रतिपादक अंश (८/२१, ९/४-५, १२/३-४) 
अस्तु; इस समस्त चर्चा का अभिप्राय मात्र यही है कि गीता में ईश्वर की भक्ति चाहे साकार स्वरूप की हो अथवा निराकार स्वरूप की हो – सर्वत्र एक ही आदेश है – भगवान की शरण होकर, भगवान की प्रसन्नता के लिये, भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करते हुए अंत में स्वयं भगवान को प्राप्त हो जाता है – तद्रूप हो जाता है –
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भक्ति की इससे बड़ी महिमा और क्या होगी ? ऐसे भक्त सबमें आत्मरूप के ही दर्शन करते हैं । उनमें कोई तो शुकदेव जी की भाँति लोगों के उद्धार केलिए उदासीन बने विचरते हैं, कोई अर्जुन की भाँति ईश्वर की आज्ञानुसार आचरण करते हुए कर्तव्य कर्मों का पालन करते हैं । कोई गोपियों की भाँति अद्भुत प्रेमलीला में मत्त रहते हैं । और कोई जड़भरत की भाँति जड़ और उन्मत्त के समान चेष्टा करने लगते हैं । किन्तु होता सब कुछ ईश्वर की आज्ञानुसार ही है – कर्तापन का अहंकार वहाँ नहीं होता । यही वास्तविक भक्ति है ।

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