सोमवार, 9 दिसंबर 2013

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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू दीया है भला, दीया करौ सब कोइ। 
घर में धर्या न पाइये, जे कर दीया न होइ ॥३८॥ 
टीका ~ दीवा अच्छा है, क्योंकि हाथ में दीवा नहीं हो तो घर में सुरक्षित धन भी नहीं प्राप्त होता है और दिया नाम यहाँ पर दान का भी है। यदि हाथों से दान किया हुआ नहीं हो तो इस संसार में संचित किया धन, परलोक में काम नहीं आता है। इसलिए सब कोई दान करो, एवं "दिया'' का वाचक भी है। द्रष्टान्त में श्री सतगुरु महाराज उपदेश करते हैं कि हे संतों ! जो आत्म-ज्ञान है, सोइ अच्छा है, इसको सब कोई सम्पादन करो। क्योंकि अन्त:करण में ज्ञानरूपी दीपक नहीं होगा, तो ह्रदय में व्याप्त जो निरंजन परमेश्वर है, उसकी प्राप्ति नहीं होगी। अभिप्राय यह है कि, प्रथम दया, दानादि से, मन को शुद्ध करो। तत्पश्चात् भक्ति से आत्म-ज्ञान करके उसका विचार करो ॥३७॥ 
अब पूर्व कहे अर्थ का ही विस्तारपूर्वक विवेचन करते हैं :- 
दादू दीये का गुण तेल है, दीया मोटी बात। 
दीया जग में चाँदणां, दीया चालै साथ ॥३८॥ 
टीका ~ दीपक का मुख्य गुण तेल है, किन्तु उसके लिए मोटी बत्ती आदिक और भी सामग्री चाहिए। चन्द्रमा, सूर्य अस्त होने पर जग में कहिए-घर में दीपक से ही प्रकाश होता है और अन्धकार में दीपक को साथ लेकर ही चलना हो सकता है। दान के विषय में भी सतगुरु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासु-जनों ! दीया अर्थात् अन्न-वस्त्रादि का जो दान, वह उनको ही परलोक में फल प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त दान के और भी गुण हैं। "दीया मोटी बात'' "दीया जग में चाँदणां'' अर्थात् - जो कोई भी अन्न, वस्त्र, औषधि, विद्या आदि का दान देते हैं, उसका फल तो परमेश्वर देवेंगे ही, साथ ही जग में उनका नाम भी उजागर होगा ॥३८॥ 
रोटी देती वीर, बांदी एक दीवान की। 
टपक लगै नहीं तीर, खैर खसम आडी भाई ॥ 
द्रष्टान्त ~ कन्नौज शहर में, वहाँ के दीवान की दासी यानी नौकरानी, दीवान के निमित्त कहिए - रक्षा के लिए एक रोटी रोज साधु को दिया करती थी, परन्तु दीवान की घरवाली उसके काम से रुष्ट रहती थी और कहती, "मूर्ख ! रोज एक रोटी क्यों देती हैं ?'' परन्तु वह उसकी बात नहीं मानती और चुपके ही साधु को दे देती। 
एक समय कन्नोज पर शत्रुओं ने हमला किया। दीवान सेना लेकर लड़ने को गया। जंग में देखा कि गोल-गोल रोटी के आकारमय चक्कर उसके सारे शरीर को ढक लेते। शत्रु के हथियार नहीं लग पाते और जब वह शत्रुओं पर प्रहार करता, तब वह गोल रोटी चक्ररूप धरकर शत्रु की सेना को कत्ल करते, उसे दिखलाई पड़ते। दीवान की विजय हुई। 
घर में आकर एक साधु से पूछा कि युद्ध की बात मुझे समझ में नहीं आई। युद्ध में वह रोटी जैसा गोल-गोल क्या था ? साधु ने कहा :- तेरी रक्षा के लिए घर में कोई रोटी दान करती है, मालूम करो। दीवान ने घर में मालूम किया, तो दासी को हृदय से प्यार किया, दान का महत्व समझा और बोला :- तुमने मेरे राजा की, नगर की और मेरी रक्षा की है, आपको धन्य है। 
(श्री दादू वाणी ~ गुरुदेव का अंग) 
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साभार : Shiv Shankar Daily ~ 
एक बार एक राजकवि कहीं जा रहे थे, जेठ का तपता हुआ महिना था, रास्ते में उनको एक राहगीर मिला वो बहुत ही गरीब दिखाई दे रहा वो नंगे पैर चल रहा था. उसको देख कर राजकवि महोदय को बड़ी दया आई और उन्होंने अपनी जूतियाँ उतार कर उस व्यक्ति को दे दी. कवि महोदय को नंगे पैर चलने की आदत नहीं थी उनके पैर जलने लगे परन्तु उनके मन में ये संतोष था की उन्होंने किसी की सेवा की, किसी को कष्ठ से राहत दिलवाई. 
थोडा आगे जाने पर उनको एक हाथी मिला उसके महावत ने जैसे ही राजकवि को देखा उसने उनको प्रणाम किया और उनको हाथी पर बैठा लिया. थोडा आगे जाने पर उनको राजा मिला उसने देखा कि राजकवि हाथी पर नंगे पैर बैठे हुए है उन्होंने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों? राजकवि ने सारी बात राजा को कह सुनाई.... 
राजा ने सोचा कि जूतियाँ दान करने से राज कवि को हाथी की सवारी करने को मिली अगर मैं ये हाथी ही दान कर दूं तो पता नहीं मुझे उसका क्या क्या फल प्राप्त होगा... 
ऐसा विचार कर राजा ने कवि से कहा कि आज से ये हाथी जिस पर आप बैठे हुए हो ये आपका हुआ. ये है दान का तुरंत फल.... दान का फल हर किसी को प्राप्त होता है चाहे वो तुरंत हो या देर से. इसीलिए हमेशा अपने ही सुख की नहीं सोच कर आदमी को दुसरों के लिए भी कुछ करना चाहिए... 
आप किसी के लिए कुछ करते हैं किसी को कुछ देते हैं तो उसका पता नहीं कितने गुना आपको उसके बदले में प्राप्त होता है ॥ 

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