मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

= शूरातन का अंग २४ =(६३/६४)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*शूरातन का अंग २४*
*शूरातन*
*दादू पाखर पहर कर, सब को झूझण जाइ ।*
*अंग उघाड़ै शूरवां, चोट मुँहैं मुँह खाइ ॥६३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रतर पहनकर सब कोई सेना में युद्ध करने जाते हैं, परन्तु सच्चे शूरवीर उघाड़े अंग से ही युद्ध स्थल में डटकर, शत्रुओं के सन्मुख चोट देते हैं । इसी प्रकार भेष बनाकर सम्प्रदाय चिन्ह बनाकर, सब कोई, संत कहलाते हैं, परन्तु सच्चे शूरवीर साधक, मन इन्द्रियों को दमन करने वाले, उनके अंग पर कोई साम्प्रदायिक चिन्ह, भेष - बाना नहीं होता । गुरु उपदेश ही उनका भेष - बाना है ॥६३॥
बाना ब्रतर पहिन कर, लड़ै सकल संसार । 
जन रज्जब सो शूरवां, जो झूझै निरधार ॥
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*जब झूझै तब जाणिये, काछ खड़े क्या होइ ।*
*चोट मुँहैं मुँह खाइगा, दादू शूरा सोइ ॥६४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब आसुरी सम्पदा के गुणों को और मन इन्द्रियों के विषय मनोरथों को मारे, अर्थात् केवल भेष-बाना धारण करने से ही, कोई सच्चे शूरवीर नहीं होते । किन्तु मन के विषय-मनोरथों से जब वृत्ति अन्तर्मुख होवे, तब तो साधुता और भेष-बाना सफल है, अन्यथा नहीं ॥६४॥
घर आंगण बाजार में, बंका सब को होइ । 
रज्जब रण में बांकुड़ा, सो जन बिरला कोइ ॥
सूर सभा में कहत है, सकल सराहै गॉंव । 
जगन्नाथ जो रण रूपै, सूरवीर तिहिं नांव ॥
अति गति सूधा देखिये, सूर सहर के माहिं । 
काम पड़या ह्वै केहरी, रण में मावै नाहिं ॥
वैरी जीतै बस करै, तोड़ विषम गढ बांका । 
डिगै न रण पग रोपि है, सूरवीर जन रांका ॥
(क्रमशः)

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