शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(स.दि.- १५/१६)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
सप्तम दिन ~ 
सखि ! इक नित ताकत ही डोले, 
लागत दॉंव खाय नहिं बोले ।
चूहों पर ताकत मार्जारा, 

नहिं, सखि मृत्यु खाय संसारा ॥१५॥
आं. वृ. - ‘‘एक निरंतर देखता ही फिरता है और दांव आने पर झट खा जाता है। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘चूहों पर बिलाव ताकत रहता है और दॉंव आने पर पकड़ के खा जाता है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो मृत्यु है। संसार के सभी प्राणियों को खाता रहता है। तू मृत्यु से बचने का उपाय, जो आत्मज्ञान है, उसे इसी देह में प्राप्त करने का यत्न कर, क्योंकि मनुष्य देह से भिन्न शरीरों में आत्म ज्ञान प्राप्त होना कठिन है। यदि इस शरीर में आत्म ज्ञान न हुआ तो फिर चौरासी के चक्कर में तो बारंबार शीघ्रातिशीघ्र मृत्यु का ग्रास होना ही पड़ेगा। अत: प्रमाद को छोड़कर नित्य प्रति संतों का संग किया कर जिससे शीघ्र ही आत्मज्ञान हो जाय।”
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सखी ! एक सब दुख हरता है, 

नर को भले निरुज करता है।
चूर्ण सुदर्शन मैंने जाना, 

हरि स्मरण कह संत सुजाना ॥१६॥
आं. वृ. - ‘‘एक सभी रोगों को नाश करके मनुष्य को निरोग बना देता है। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘सुदर्शन चूर्ण है। उसके सेवन से मनुष्य सभी रोगों से मुक्त हो कर सुखी होता है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि! सब दु:खों का अत्यन्ताभाव करने वाला तो संतों ने भगवत् भजन ही बताया है। तू भी सर्व दु:खों के अत्यन्ताभाव के लिये निरंतर भगवत् भजन ही किया कर।”
(क्रमशः)

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