शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

दादू मैं का जानूं का कहूँ ६/३१

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*हैरान का अंग ६/३१*
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*दादू मैं का जानूं का कहूँ, उस बलिये की बात ।*
*क्या जानूं क्यों ही रहे, मौं पै लखा न जात ॥१९॥* 
दृष्टांत- देख गर्व प्रहलाद के, हरि मेटा द्विज होय । 
डारि डांगड़ी पृथ्वी पर, बल हर लीन्हा सोय ॥१॥ 
अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त करने से प्रह्लाद के मन में बल का गर्व हो गया । तब भगवान् को अच्छा नहीं लगा । वे अपने भक्त का गर्व दूर करने के लिये वृद्ध ब्राह्मण का रुप बनाकर प्रह्लाद की राजसभा में गये और बोले - मैंने सुना है आप विष्णु ये युद्ध करना चाहते हैं किन्तु विष्णु में तो अपार बल है । उन्हें जीतना सहज नहीं है । 
यह कह ही रहे थे कि ब्राह्मण के हाथ की लकड़ी भूमि पर पड़ गई । तब ब्राह्मण ने कहा - नीचे झुकने से मुझे कष्ट होता है । तुम मेरी लकड़ी उठाकर मेरे हाथ में दे दो । प्रहलाद ने सभासदों से कहा - ब्राह्मण की लकड़ी उठाकर इनके हाथ में दे दो । किन्तु उस लकड़ी को कोई भी नहीं उठा सका तब प्रहलाद स्वयं उठाने लगा तो प्रह्लाद से भी नहीं उठी । 
तब ब्राह्मण ने कहा - तुमसे मेरी लकड़ी ही नहीं उठी, तुम विष्णु से क्या युद्ध कर सकते हो ? इतना कहते ही प्रह्लाद पहचान गया कि ये तो स्वयं भगवान् ही हैं । फिर भगवान् की स्तुति कर के क्षमायाचना की । सोई उक्त १९ की साखी में कहा है कि - परमात्मा के बल का पार नहीं आ सकता । 
द्वितीय दृष्टांत- 
इन्द्रादिक गर्वे अमर, हरि धर यक्ष स्वरुप । 
वायु आग्न देखन गये, लज्जित भे सुर भूप ॥२॥ 
एक समय इन्द्रादिक देवताओं को गर्व हो गया कि हमने महा बलवान् दैत्य दानवादि पर विजय प्राप्त की है, अतः हमारे समान बलवान् कोई भी नहीं है । तब परमात्मा ने सोचा - देवताओं का गर्व होना अच्छा नहीं है । अतः मुझे शीघ्र ही उनका गर्व दूर करना चाहिये । 
एक दिन इन्द्र, वायु, आग्न तीनों देव एक स्थान पर खड़े हुये थे । उसी समय परमात्मा उनसे कु़छ दूर पर यक्ष रुप में प्रकट हो गये । उक्त तीनों देवों ने उनको देखकर पता लगाना चाहा कि यह कौन यक्ष है । इन्द्र ने वायु को कहा- तुम इस यक्ष का पता लगाकर आओ, यह कौन यक्ष है ? 
वायु ने जाकर यक्ष से पू़छा- आप कौन हैं ? यक्ष ने कहां - तुम कौन हो ? वायु ने कहा - मैं बल का राजा वायु हूं । मेरे में अपार बल है । मैं पर्वत शिखरों को भी उडा सकता हूं । यक्ष ने एक तृण भूमि पर डालकर कहा - इस तृण को उडाओ । वायु ने अपना पूर्ण बल लगाया किन्तु तृण को न उडा सके । तब लज्जित होकर लौट आये और बोले - मैं यक्ष को नहीं पहचान सका । 
फिर इन्द्र ने आग्न को भेजा । आग्न ने यक्ष पू़छा - आप कौन है ? यक्ष ने कहा - आप कौन है ? आग्न ने कहा - मेरा नाम आग्न है और मुझमें इतना बल है कि पर्वतों को भी भस्म कर डालता हूं । यक्ष ने कहा - इस तृण को जलाओ । आग्न ने तृण को जलाने के लिये अपने पूर्ण बल का उपयोग किया किन्तु तृण नहीं जला तब आग्न भी लज्जित होकर लौट आये और इन्द्र को कहा - मैं भी यक्ष को नहीं जान सका । 
तब स्वयं इन्द्र जाने लगा तो यक्ष अन्तर्धान हो गया और आकाश में उमा(ब्रह्म विद्या) का दर्शन इन्द्र को हुआ इन्द्र ने उनसे पू़छा - यह यक्ष कौन था ? तब उमा ने कहा - वे ब्रह्मा ही थे । तुम लोगों को जो बल का अभिमान हो गया था, उसे ही तोड़ने आये थे । देखो वायु उनका तृण भी नहीं उड़ा सके और आग्न तृण को जला भी नहीं सके । आप लोगों में जो बल है परमात्मा का ही है, अतः गर्व त्याग कर परमात्म परायण बनो । फिर वह माता भी अन्तर्धान हो गई । इन्द्र भी परमात्मा की लीला देखकर लज्जित हुये और गर्व को छोड़कर प्रभु को प्रणाम किया । 
(क्रमशः)

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