शनिवार, 7 दिसंबर 2013

= ८९ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
काहे दादू घर रहै, काहे वन - खंड जाइ ।
घर वन रहिता राम है, ताही सौं ल्यौ लाइ ॥३४॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता संत घर और वन, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर ब्रह्मस्वरूप राम में लय लगाते हैं । इसी प्रकार उत्तम जिज्ञासु पुरुष, घर और वन का, या प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के अहंकार से रहित होकर आत्मस्वरूप राम में लय लगावें ॥३४॥
(श्री दादू वाणी ~ मध्य का अंग)
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साभार : Gyan-Sarovar(ज्ञान-सरोवर) 

एक व्यक्ति संसार का त्याग कर के साधु बन गया। साधु बनने के बाद गाँव से थोड़ी दूर वन में एक घटादार वृक्ष के नीचे रहने लगा। वहाँ लोगों का आना जाना कम ही रहता था। एक दिन एक चरवाहे ने साधु को देखा। चरवाहे ने साधु से बात करनी चाही पर संसार का त्याग करने वाले साधु ने नहीं की। एक दो दिन बाद चरवाहा दूध लेकर आया। साधु को दिया। साधु ने ले लिया। 
साधु के स्वीकार के बाद चरवाहा रोज दोपहर में दूध लाने लगा। धीरे धीरे दोनों में बातचीत होने लगी।एक दिन चरवाहा दूध के साथ कुछ पकवान ले आया पर साधु ने पकवान लेने से इनकार कर दिया। मगर उसे स्वप्न में पकवान दिखने लगे। रोज दिखने लगे क्योंकि पकवान खाए एक अर्सा हो गया था। भूतकाल के 'स्वादिष्ट दृश्य' नजरों में तैरने लगे। मन स्वाद के लिए मचल उठा। कुछ दिनों बाद साधु ने चरवाहे को कहकर रोटी मंगवाई।
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चरवाहा खुशी खुशी रोटी लेकर आया। कुछ दिनों बाद फिर पकवान लाया। इस बार साधु ने इनकार नहीँ किया। कुछ समय बाद बरसात आने पर चरवाहे ने साधु को वृक्ष के नीचे झोंपड़ी बना दी। इस कार्य के लिए गाँव के कुछ दोस्तों की मदद भी ली। दोस्तों को लगा साधु कोई सिद्ध पुरुष है। सो वे भी साधु के पास आने लगे। साधु उन्हें 'संसार मोहमाया है' जैसे प्रवचन देता।
साधु को पता ही नहीं चला की कैसे झोँपड़ी धीरे-धीरे कब एक विशाल आश्रम बन गई। एक दिन अचानक साधु का सपना टूटा तो पाया कि दूसरा संसार बन चुका है। फिर सोचने लगा क्या संसार का त्याग संभव है?

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