शनिवार, 7 दिसंबर 2013

= ९० =



#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू ध्यान धरे क्या होत है, जो मन नहीं निर्मल होइ |
तो बग सब ही उद्धरैं, जे इहि विधि सीझै कोइ || ८६ ||
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सकाम भावना से परमेश्‍वर का ध्यान करने से क्या उद्धार होता है? जब तक अपना मन पापों से शुद्ध नहीं होता, तब तक वह ध्यान तो ऐसा है जैसे कि बगुले मछली का ध्यान करते हैं | ऐसे ध्यान से तो उनका भी उद्धार होना चाहिए ? सो होता नहीं | ऐसे बगुल - ध्यानियों का उद्धार नहीं होता है | वे तो दोजख में ही जाते हैं ||८६||
च्यार ठगारे भेष धरि, गांव खिनायो एक | 
सेठ लेइ केसो कह्यो, धनिक वणिक जानेक ||
दृष्टान्त ~ चार ठगों ने विचार किया कि अमुक शहर में चलें और धन प्राप्ति का साधन करें | एक को कहा - तू साधु बन जा और अमुक सेठ के बगीचे में बैठ जा | जब तक हम लोग नहीं आवें तब तक आँखें नहीं खोलना | शेष तीनों ने साहूकारों का रूप बनाया और बड़े - बड़े सेठों की दूकान पर जा - जाकर बोलने लगे ~ ‘‘एक त्रिकालदर्शी महात्मा आपके शहर में ठहरे हुए बताते हैं | हम लोग उन्हीं की खोज में घूम रहे हैं | आप लोगों ने उनका कहीं बाग - बगीचों में दर्शन किया हो, तो बतलाओ ? वे बड़े भारी परिचय सिद्ध महापुरुष हैं | उनके एक - एक गुण का वर्णन हम नहीं कर सकते | अनेकों काम हमारे सिद्ध करके दिये |’’ 
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सेठ लोग बोलने लगे कि आप लोग उनको ढूंढो, अगर वे मिल जावें, तो हमें भी जरूर दर्शन कराना | उन्होंने कहा ~ ‘‘सेठ जी, हम ढूंढते हैं, यदि मिल गए तो आप लोगों को जरूर दर्शन करायेंगे | ऐसे - वैसे लंगोटिया तो बहुत फिरते हैं, उनसे क्या होता है ?’’ वे तीनों इधर - उधर बगीचों में घूम - घाम कर सेठों की दुकानों पर वापिस आये और दो - चार लखपतियों को साथ में लिया | उनको देखकर साधारण लोग भी साथ हो गये | 
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वे सबको लेकर ध्यानी बाबा के पास चले जा रहे थे | दूर से उस ध्यानी ने देखा और संकेत करके बोला ~ केसो ! केसो ! (कैसे क लाया है ! कैसे क लाया है !) | तब संकेत करके ठग बोले ~ धनसधारी ! धनसधारी ! (लखपति हैं लखपति !) | 
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जो ठगों के साथ के दर्शन करने वाले यात्री थे, उन्होंने कहा कि देखो, वह महात्मा सामने बैठे हैं, उन्होंने भी भगवान के ‘केसो’ नाम का स्मरण किया और ये तीनों लोग बोले ~ जाणराय ! जाणराय ! वह ठग जो साधु बना बैठा था, यह सुनकर घबरा गया और उठ कर भागा | यात्री लोग सभी उसके पीछे भागे और कहते गये ~ ‘‘जाणराय ! जाणराय !’’ कुछ दूर के बाद वे तीनों ठग, जो सेठ रूप में थे, बोले ~ ‘‘अब तो भाई, वह महात्मा तो रम गये | देखो !आपका कभी भाग्य होगा तो दर्शन करावेंगे | 
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अब तो हम भी उनके पीछे जा रहे हैं |’’ सब लोग गांव में चले आये | आगे वे चारों ठग जब मिले, आपस में कहने लगे,’’ मूर्ख ! हम तो लखपतियों को साथ लेकर आये थे, तेरे को पुजाने के लिये |’’ वह ध्यानी बोला ~ ‘मैंने तो यह समझा कि वे लोग हमारी पोल जान गये, इसलिए मैं भाग आया |’ ऐसे बगुल - ध्यानियों का कल्याण नहीं होता है |
(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)
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साभार : Gyan-Sarovar(ज्ञान-सरोवर) ~ जा की रही भावना जैसी ......... 

एक प्रसिद्ध वेश्यालय था, जो किसी मंदिर के सामने ही स्थित था. वेश्यालय में नित्य प्रति गायन-वादन-नृत्य आदि होता रहता था, जो वहां की वेश्या अपने ग्राहकों की प्रसन्नता के लिए प्रस्तुत करती थी और बदले में बहुत सारा धन व कीमती उपहार उनसे प्राप्त करती थी. इस प्रकार उसकी समस्त भौतिक इच्छाएं तो पूर्ण थी, लेकिन कठोर मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था और उसे वहां पूजा-पाठ आदि करने की अनुमति नहीं थी. 
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वेश्यालय में तो उसे ग्राहकों से ही फुर्सत नहीं थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन संपन्न कर सकें. उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी, कि वह किसी प्रकार देव पूजन व मंदिर में स्थापित देव मूर्ति का दर्शन कर ले और धीरे-धीरे समय के साथ उसकी यह इच्छा एक प्रकार की व्याकुलता में बदल गयी. जब मंदिर में आरती के समय बजने वाली घंटियों की आवाज उसके कानों में पड़ती, तो वह अत्यंत व्यग्र हो उठती, उसका हृदय रूदन-क्रंदन कर उठता और भगवान् दर्शन की उत्कंठा उसके नेत्रों से बरसने लगती. 
दूसरी ओर वेश्या के गायन-नृत्य आदि की स्वर लहरिया मंदिर तक भी पहुंचती थी. मंदिर का पुजारी कभी तो अत्यंत क्रोधित होता, कि उस नीच कर्मों में रत स्त्री की आवाज़ से मंदिर के वातावरण की पवित्रता में विघ्न उपस्थित हो रहा हैं और कभी वासना के वशीभूत उसी वेश्या के आगोश में पहुँच कर उसके रूप-रस का पान करने की कल्पना में डूब जाता, लेकिन सामाजिक मर्यादा के कारण ऐसा संभव नहीं था. 
संयोगवश उस वेश्या और पुजारी, दोनों की मृत्यु एक ही समय हुयी. यमराज उस पुजारी को नरक के द्वार पर छोड़ कर वेश्या को स्वर्ग की और ले जाने लगे. 
पुजारी को इस पर बहुत क्रोध आया और उसने यमराज से पूछा – “मैं जीवन भर मंदिर में देव मूर्तियों का पूजन करता रहा, फिर भी मुझे नरक में जगह दी जा रही है और यह वेश्या जीवन भर पाप कर्मों में लिप्त रही, फिर भी इसे स्वर्ग ले जाया जा रहा है. ऐसा क्यों?” 
यमराज ने उत्तर दिया – “देव मूर्तियों की पूजा करते हुए भी तुम्हारा चित्त सदा इस वेश्या में ही लगा रहा, जबकि पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए भी इसका चित्त देव मूर्ति में ही लगा रहा. यही वजह हैं, कि इसे स्वर्ग मिल रहा है और तुम्हें नरक.” 
वस्तुतः कर्म के साथ विचारों का भी जीवन में अत्यधिक महत्त्व हैं. जब तक चित्त वेश्यागामी रहेगा (अर्थात भौतिक भोगों में लिप्त रहेगा), तब तक देव पूजन, जप, साधना आदि के उपरांत भी स्वर्ग (अर्थात देवत्व. श्रेष्ठता, सफलता, पूर्णता) की प्राप्ति संभव नहीं है. 
किसी साधना आदि में असफलता प्राप्त होने के पीछे कारण ही यही होता हैं, कि कहीं न कहीं उसके विश्वास, श्रद्धा, समर्पण आदि में न्यूनता रहती है एवं चित्त साधनात्मक चिंतन से न्यून हो कर भोगेच्छाओं में लिप्त होता है. 
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अतः साधक का यह पहला कर्त्तव्य है, कि वह मन को नियंत्रित करें, तभी श्रेष्ठता की और अग्रसर होने की क्रिया संभव हो पायेगी.

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