मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
१७८ (गुजराती)विनती ~ श्री दादू वाणी 
भक्ति मांगूं बाप भक्ति मांगूं, 
मूने ताहरा नांऊं नों प्रेम लाग्यो । 
शिवपुर ब्रह्मपुर सर्व सौं कीजिये, 
अमर थावा नहीं लोक मांगूं ॥टेक॥ 
आप अवलंबन ताहरा अंगनों, 
भक्ति सजीवनी रंग राचूं । 
देहनें गेहनों बास बैकुंठ तणौं, 
इन्द्र आसण नहीं मुक्ति जाचूं ॥१॥ 
भक्ति वाहली खरी, आप अविचल हरि, 
निर्मलो नाउं रस पान भावे । 
सिद्धि नें रिद्धि नें राज रूड़ो नहीं, 
देव पद माहरे काज न आवे ॥२॥ 
आत्मा अंतर सदा निरंतर, 
ताहरी बापजी भक्ति दीजे । 
कहै दादू हिवे कौड़ी दत आपे, 
तुम्ह बिना ते अम्हें नहीं लीजे ॥३॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें अनन्य भक्ति की याचना कर रहे हैं कि हे परमपिता परमेश्वर ! हम तो अब आपकी अनन्य भक्ति आपसे मांगते हैं, जिससे आपके नाम - स्मरण का हमारे अन्तःकरण में प्रेम लगे । हे नाथ ! शिवपुरी, कैलास, ब्रह्मलोक, इन सबसे मुझे क्या लेना है और अमर होकर हम क्या करेंगे ? और स्वर्ग आदि लोकों में भी जाकर क्या करेंगे ? 
आप दया करके आपके स्वरूप को प्राप्त कराने वाली आपकी अनन्य भक्ति हमको दीजिये । आपकी इस निष्काम भक्ति रूप रंग में ही हमारा मन सप्रेम लगे, क्योंकि इस अनन्य भक्ति द्वारा हम आप सजीवन स्वरूप को प्राप्त होवेंगे । न हमें देह प्राप्त करके घर में रहने की या बैकुण्ठ में बसने की ही इच्छा है, न इन्द्रासन की ही इच्छा है । न हम आपसे चार प्रकार की मुक्ति ही मांगते हैं । 
हे परमेश्वर ! आपकी प्यारी भक्ति ही हमें खरी सच्ची लगती है । हे हरि ! जैसे आप अविचल हो, ऐसा ही आपका निष्काम नाम - स्मरण रूपी रस हमको प्रिय लगता है । न हमें सिद्धियों की इच्छा है, न रिद्धियों की, न राज - पद की ही इच्छा है और देव - पद प्राप्त करने से हमें क्या मतलब है ? हे बाप जी ! हमारे अन्तःकरण में आप अपनी अनन्य भक्ति दीजिये । हे प्रभु ! हमें अब आप चाहे, करोड़ों का धन दें, वह भी हम आपके बिना नहीं लेंगे । 
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साभार : अनजान 
हे नाथ ! आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे प्यारे लगें। केवल यही मेरी माँग है, और कोई माँग नहीं। 
हे नाथ ! अगर मैं स्वर्ग चाहूँ तो मुझे नरक में डाल दें, सुख चाहूँ तो अनन्त दुःखों में डाल दें, पर आप मुझे प्यारे लगें। 
हे नाथ ! आपके बिना मैं रह न सकूँ, ऐसी व्याकुलता आप दे दें। 
हे नाथ ! आप मेरे हृदय में ऐसी आग लगा दें कि आपकी प्रीति के बिना मैं जी न सकूँ। 
हे नाथ ! आपके बिना मेरा कौन है? मैं किससे कहूँ और कौन सुने? 
हे मेरे शरण्य ! मैं कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? कोई मेरा नहीं। 
मैं भूला हुआ कईयों को अपना मानता रहा। उनसे धोखा खाया, फिर भी धोखा खा सकता हूँ, आप बचाएं। 
हे मेरे प्यारे ! हे अनाथनाथ ! हे अशरणशरण ! हे पतित पावन ! हे दीनबन्धो ! हे अरक्षितरक्षक ! हे आर्तत्राणपरायण ! हे निराधार के आधार ! हे अकारण करुणा वरुणालय ! हे साधनहीन के एकमात्र साधन ! हे असहाय के सहायक ! क्या आप मेरे को जानते नहीं, मैं कैसा भग्नप्रतिग्य, कैसा कृतघ्न, कैसा अपराधी, कैसा विपरीतगामी, कैसा अकरणकरणपरायण हूँ। अनन्त दुःखों के कारणस्वरूप भोगों को भोगकर-जानकर भी आसक्त रहने वाला, अहित को हितकर मानने वाला, बार-बार ठोकरें खाकर भी नहीं चेतनेवाला, आपसे विमुख होकर बार-बार दुःख पानेवाला, चेतकर भी न चेतने वाला, जानकर भी न जानने वाला मेरे सिवाय आपको ऐसा कौन मिलेगा? 
प्रभो ! त्राहि माम् ! त्राहि माम् !! पाहि माम् ! पाहि माम् !! हे प्रभो ! हे विभो ! मैं आँख पसारकर देखता हूँ तो मन-बुद्धि-प्राण-इन्द्रियाँ और शरीर भी मेरे नहीं हैं, फिर वस्तु-व्यक्ति आदि मेरे कैसे हो सकते हैं, ऐसा मैं जानता हूँ, कहता हूँ, पर वास्तविकता से नहीं मानता। मेरी यह दशा क्या आपसे किंचितमात्र भी कभी छिपी नहीं है? फिर हे प्यारे ! क्या कहूँ ! हे नाथ ! हे नाथ !! हे मेरे नाथ !!! हे दीनबन्धो ! हे प्रभो ! आप अपनी तरफ से शरण में ले लें। बस, केवल आप प्यारे लगें।

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