卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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सप्तम दिन ~
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सखी ! एक में बहु उपजावें,
वे सब ही इक मुख में जावें ।
गूलर फल रु जंतु कपि जानी,
नहीं, काल ब्रह्मांड सयानी ॥९॥
आं. वृ. - ‘‘एक में बहुत से जन्मते हैं और वे सभी एक के ही मुख में जाते हैं। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘गूलर के फल में बहुत से जीव जन्मते हैं। उस फल को वानर खा जाता है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो ब्रह्मांड है। इसमें अनेक प्राणी उत्पन्न होते हैं और सभी काल के मुख में जाते हैं। किन्तु जो भगवत् भजन द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह ब्रह्मांड से निकल कर ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। तू भी ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने का साधन करेगी तो इस काल के ग्रास रूप ब्रह्मांड से निकल कर ब्रह्म को प्राप्त हो जायगी।”
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सखी ! एक से छ: मिल लागे,
तो देखत दुख सारा भागे ।
काम महा नौकर नहिं नीके,
ईश चित्त इन्द्री हैं जी के ॥१०॥
आं. वृ. - ‘‘यदि छ:ओं मिलकर एक से लग जावें तो देखते-देखते ही सर्व दु:ख नष्ट हो सकते हैं। बता वे कौन हैं?”
वां. वृ. - ‘‘कोई महान् कार्य होगा और नौकर एक मत होकर उस काम में नहीं लगते होंगे।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! ये तो मन और पांचों ज्ञान इन्द्रियां हैं। यदि वे छ:ओं एक मत होकर ईश्वर भक्ति में लग जावें तो शीघ्र ही जन्मादिक सर्व दु:खों का अन्त हो सकता है। तू अपने मन इन्द्रियों को एकाग्र करके ईश्वर चिन्तन किया कर। मनुष्य जन्म का सबसे बड़ा यही कार्य है। यदि मन इन्द्रियों को एकाग्र करके ईश्वर उपासना करेगी तो दु:ख रूप संसार से मुक्त होकर सुख स्वरूप ईश्वर को प्राप्त हो जायगी।”
(क्रमशः)

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