बुधवार, 11 दिसंबर 2013

लै विचार लागा रहे ५/७

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*जरणा का अंग ५/७*
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*लै विचार लागा रहे, दादू जरता जाइ ।*
*कबहूँ पेट न आफरे, भावे तेता खाइ ॥७॥*
दृष्टांत- 
सींग नृपति के शीश पै, और न जाने कोय ।
नाई खाने में कहा, खाना में ध्वनि होय ॥५॥
एक राजा के शिर में सींग निकल आया था । अतः कोई जान न जाय इसलिये राजा हजामत नहीं बनवाता था । फिर मंत्री आदि ने कहा - आपके बाल बहुत बढ़ गये हैं । आपको हजामत बनवाना चाहिये । तब राजा ने नाई को बुलवाया और एक एकान्त कमरे में हजामत बनवाई तथा नाई को कहा - मेरे शिर में सींग की बात किसी को भी नहीं कहना । यदि कहेगा तो प्राणान्त दंड मिलेगा । 
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नहीं कहने से नाई का पेट फूल गया । तब उसने सोचा - नहीं कहने से भी मर जाऊंगा और कहने से भी प्राणान्त दंड मिलेगा । दोनों बराबर ही हैं । अतः मिट्टी की खान में गया जहां कोई भी नहीं था वहां जोर जोर से 'राजा के शिर सींग' यह तीन बार कहा तब उसका पेट ठीक हो गया । खान में कुम्हार मिट्टी लाने गया तो वहां 'राजा के शिर सींग' ध्वनि सुनकर डर गया और नगर में आकर कहा - खान में भूत बोला - 'राजा के शिर सींग' उक्त प्रकार यह बात प्रत्येक व्यक्ति के कानों मे पहुंच गई । 
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राजा ने नाई को बुलाकर डांटते हुये कहा - तूने सबको कह दिया । उसने उक्त कथा सुना दी । राजा ने उक्त कथा सुनकर सोचा - जब खान को भी हजम नहीं हुई तो नाई तो क्या चीज है जो पचा जाता । नाई को क्षमा कर दिया । यह व्यतिरेक दृष्टांत है अर्थात् जैसे नाई का पेट फूल गया और उसने खान में कहा, वैसे साधक का पेट कभी नहीं फुलना चाहिये । साधन जन्य लाभ गुप्त ही रखना चाहिये । जैसे भावे जितना खाने से पेट नहीं फूलता, वैसे ही अपने अधिकार का साधन करने से पचाया जा सकता है ।
(क्रमशः)

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