卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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सप्तम दिन ~
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सखी ! एक यदि वश में होवे,
कौन काम तब सिद्ध न होवे ।
यह है प्रेत सखी ! पहचानी,
नहिं, यह तो है चित्त सयानी ॥११॥
आं. वृ. - ‘‘एक यदि वश में हो जाय तो, संसार में ऐसा कार्य कौन है जो न हो सके, अर्थात् सभी काम सिद्ध हो सकते हैं। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘प्रेत है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो मन है। तू भी अपने मन को वश करने का साधन किया कर। जब तेरा मन तेरे अधीन हो जायगा तब तेरी सभी आशाएँ पूर्ण हो जायेंगी। मन को वश करने का साधन ‘श्री साधक-सुधा’ ग्रंथ के २०वें बिन्दु से सीख। उसके पढ़ने से तू मन को वश करने का सरल उपाय जान सकेगी।”
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सखी ! एक अति सत्वर चाले,
मारे बाण खाय नहिं टाले ।
है कुम्हार का चक्र सयानी,
नहीं, चित्त हारे विज्ञानी ॥१२॥
आं. वृ. - ‘‘एक अति शीघ्र चलता है, यदि बाण मारें तो भी उसे बचा जाता है। बता वह क्या है?”
वां. वृ. - ‘‘यह कुम्हार का चक्र है। भ्रमण के वेग से बाण नहीं लगता।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो मन है। जिसमें बड़े-बड़े विज्ञानियों ने भी हार मान ली है। तू मन के अधीन कभी न होना, नहिं तो दु:ख ही पाओगी।”
(क्रमशः)
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