卐 सत्यराम सा 卐
दादू यह परिख सराफी ऊपली, भीतर की यहु नाहिं ।
अन्तर की जानैं नहीं, तातैं खोटा खाहिं ॥३९॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसार के अज्ञानी प्राणी ऊपर भेष - बाना की ‘सराफी’ नाम - पहचान करते हैं, परन्तु उन प्राणियों की कसौटी, सत्य असत्य की परीक्षा, बाहरी लोक दिखावे की है । स्वांग देखकर ही संसारी प्राणी रीझते हैं और अन्तःकरण की वार्ता को नहीं जानते हैं । इसी से संसारीजन सकाम कर्मों में भटकते हैं और दुःख पाते हैं ॥३९॥
छन्द ~
आसन मार संवार जटा नख,
उज्जवल अंग विभूति रमाई ।
यह हमकूँ कछु देई दया कर,
घेर रहे बहु लोग लुगाई ।
कोउक उत्तम भोजन ल्यावत,
कौउक ल्यावत पान मिठाई ।
सुन्दर लेकर जात भयो सब,
मूर्ख लोगन या सिद्धि पाई॥
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इन्द्रीयार्थी भेष
दादू झूठा राता झूठ सौं, सॉंचा राता सॉंच ।
एता अंध न जानहिं, कहँ कंचन, कहँ कॉंच ॥४०॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! गर्भवास के कौल करार परमेश्वर से झूठे, ऐसे पुरुष झूठे संसार के मिथ्या कारोबार में ही रात - दिन रत्त रहते हैं । और सच्चे भक्तजन, परमेश्वर के कौल करार को पूरा करने वाले, सत्य स्वरूप परमात्मा के निष्काम नाम - स्मरण में ही अन्तःकरण में रत्त रहते हैं । परन्तु अविवेकी लोग यह नहीं समझते हैं कि कहॉं तो कंचन रूप सच्चे संत और कहॉं भेषधारी कॉंच के टुकड़े । इनकी समानता कैसे हो सकती है ॥४०॥
सन्त सकल सत लोक लौं, नहीं कल्पना कोइ ।
जन ‘जगन्नाथ’ असंत सो, परवशवर्ती होइ॥
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दादू सच बिन सांई ना मिलै, भावै भेष बनाइ ।
भावै करवत उर्ध्वमुख, भावै तीरथ जाइ ॥४१॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! तन से, मन से, वचन से, सत्य का आचरण किये बिना सत्य स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी । चाहे कितने ही वेश - भूषा धारण करले अथवा काशी में जाकर काशी करवत ले ले, चाहे चार धाम और चौरासी तीर्थ कर ले, फिर भी निष्काम परमेश्वर का नाम स्मरण किये बिना परमेश्वर की प्राप्ति असम्भव है ॥४१॥
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दादू साचा हरि का नाम है, सो ले हिरदै राखि ।
पाखंड प्रपंच दूर कर, सब साधों की साखि ॥४२॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस मिथ्या संसार में हरि का नाम ही एक सत्य है और माया का कार्य प्रपंच तो सम्पूर्ण परिवर्तनशील है । अतः हरि के नाम को ही धारण कर । तन का पाखंड, भेष - भूषा आदि और वाणी का प्रपंच झूठ - कपट, ये सब त्यागने योग्य हैं । इसमें सभी संतों का प्रमाण हैं ॥४२॥
धिक जन्म नहिश्री विद्या, धिक् व्रंत धिक् बहुज्ञता ।
धिक् कुलं धिक् बहुदीक्षा, विमुखाये त्वधोक्षणे॥
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आपा निर्दोष
हिरदै की हरि लेइगा, अंतरजामी राइ ।
साच पियारा राम को, कोटिक करि दिखलाइ ॥४३॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह हरि, अन्तर्यामी परमेश्वर, सबके अन्तःकरण के भाव को जानते हैं । राम को तो सच्चे भक्त ही प्रिय हैं, चाहे कोई करोड़ों ऊपरी आडम्बर बनाकर दिखावे, उसको राम नहीं देखते अर्थात् ऊपर के व्यवहार को राम नहीं अपनाते, अतः ये तो सब निष्फल हैं ॥४३॥
(श्री दादू वाणी ~ भेष का अंग)
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