*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षष्ठम - तरंग” १९/२०)*
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**इन्दव-छन्द**
**टीलाजी का हर समय हजूर रहना**
टील हु को अधिकार दियो गुरु,
सो निशि वासर होय हजूरी ।
न्हावन धोवन सेव करे नित,
भोजन नीर पिलावत रूरी ।
आसन पाट बिछावन धारत,
नित्य समीप रहे, नहिं दूरी ।
पंख झुलावत कुम्भ भरे जल,
पाद दबावन होत न ऊरी ॥१९॥
गुरुदेव ने टीलाजी को हजूरी का अधिकार दे रखा था, अत: वे ही अहर्निश स्वामीजी के स्नान, भोजन, वस्त्र प्रक्षालन, जल आपूर्ति आदि की सेवा किया करते । आसन पाट बिछाना, उसे संभालकर रखना, पंखा झुलाना, जलकुम्भ भरना, चरण दबाना आदि सेवा कार्य करने हेतु सदैव गुरुजी के समीप रहते । गुरु सेवा में कभी भी ऊरी(त्रुटी) नहीं होने देते ॥१९॥
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साँभर लोग सबै गुरु सेवक,
भोजन साधुन को नित दीजे ।
खीर पुरी अरु साग जिमावत,
स्वामिजु भाव रि बाजरि लीजे ।
लावत संत जु भिक्षा मधूकरि,
ईश्वर अर्पित भोजन कीजे ।
स्वामि कहें - मम बात सुनो शिष !
प्राप्त कथा थपि संत करीजे ॥२०॥
साँभर के सेवक भक्तजन संत सेवा में सदा तत्पर रहते । साधु संतों को भोजन जिमाते रहते । कभी खीर पूड़ी तो कभी हलवा, कभी साग रोटी भिजवाते । स्वामीजी तो केवल बाजरे की रोटी ही जीमते थे । या संतजन जो भिक्षा से मधुकरी(मधुकर के समान पृथक् - पृथक् घर से थोड़ा अन्न) लेकर आते, उसे ईश्वर अर्पण करके भोग लगा लेते । एक दिन स्वामीजी ने नित्य सत्संग हेतु प्रस्ताव रखा । हे शिष्य संतो ! सुनो, सदैव प्रात: कथा की स्थापना करो ॥२०॥
(क्रमशः)
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