卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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सप्तम दिन ~
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कवि -
वाह्य वृत्ति दिन सप्तमे, सुमिरत हिय में राम ।
बैठी आंतर पास जा, कर के सरति प्रणाम ॥१॥
शांत चित्त लख वाह्य को, करके आंतर प्यार ।
परम सुखद सुन्दर बचन, करने लगी उचार ॥२॥
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जिस हित दौड़ दौड़ दुख पावें,
फिर भी नहिं अभिलाष मिटावें ।
समझ गई मृत तृष्णा वारी,
नहिं सहचरी विषय संसारी ॥३॥
आं. वृ. - ‘‘जिस के लिये दौड़ दौड़ कर दुखी होते हैं, फिर भी वह इच्छा पूर्ण नहीं करता। बता वह क्या है?”
वां. वृ. - ‘‘मृगतृष्णा का जल है। मृग उसके लिये इधर-उधर दौड़ते हैं किन्तु फिर भी उससे उनकी प्यास नहीं मिटती।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं सखि ! यह तो सांसारिक भोग हैं। भोगों की प्राप्ति के लिये नाना कष्ट उठाने पड़ते हैं किन्तु फिर भी उनसे भोगाशा नहीं मिटती। अब तू तो भोगाशा को त्याग के सदा हरि चिन्तन में ही मन लगाया कर।”
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तब तक भीति प्रकाश न आवे,
होत प्रकाश भाग भय जावे ।
रज्जु सर्प का भय यह जानी,
नहीं काल भय जान सयानी ॥४॥
आं. वृ. - ‘‘एक से जब तक प्रकाश न हो तब तक ही भीति (भय) होता है। प्रकाश आते ही उसका भय भाग जाता है। बता वह क्या है?”
वां. वृ. - ‘‘जेवड़ी में जो भ्रम से सर्प दीखता है, उसका भय है। प्रकाश से रस्सी दीखते ही उसका भय नहीं रहता।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो काल का भय है। ब्रह्म ज्ञान नहीं होता तब तक रहता है, ब्रह्म ज्ञान होने पर नहीं रहता। तू भी काल भय से बचना चाहे तो ब्रह्म ज्ञान के साधन- सत्संग, हरि स्मरण, विवेकादिक साधन कर। यदि साधन न करेगी तो अन्य किसी भी प्रकार से काल भय नहीं हटेगा।”
(क्रमशः)
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