गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(स.दि.- १३/१४)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
सप्तम दिन ~ 
सखी ! एक घर स्वयं बनावे, 
अरु उस मांही आप बँधावे । 
मकड़ी है यह मैंने जानी, 
है यह जीव सखी ! न पिछानी ॥१३॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक स्वयं ही घर बनाकर उसमें बंध जाता है। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘मकड़ी है। स्वयं ही जाले का घर बनाकर उसमें बँध जाती है।” आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो जीव है। स्वयं ही शुभाशुभ कर्म करके कर्मानुसार शरीर धारण करता है और उसी में आसक्त होकर नाना क्लेश उठाता है। तू देह में आसक्त मत होना। यदि देह में आसक्त हो जायेगी तो भगवत् भक्ति न कर सकेगी। 
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आप जले सबको हि जलावे,
पर हित कभी न करने पावे । 
वन का बांस सखी ! मैं जाना, 
नहिं, सखि ! क्रोधी मनुज बखाना ॥१४॥ 
आं. वृ. - ‘‘आप जलता है और दूसरों को भी जलाता है तथा परहित का कार्य कभी नहीं कर सकता। बता वह कौन है?” 
वां. वृ. - ‘‘यह तो वन का बांस है। ग्रीष्मकाल में वायु से बांस की शाखायें परस्पर घिसने लगती हैं तब उनकी रगड़ से अग्नि उत्पन्न हो जाती है उससे स्वयं बांस तथा वन के अन्य वृक्षादि भी जल जाते हैं।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो क्रोधी मनुष्य है। अपने क्रोध से स्वयं भी दु:खी होता है और दूसरों को भी दु:खी करता है। तू कभी भी क्रोधियों का संग न करना। उनके संग से तो शांत हृदय मनुष्य भी क्षुभित हो जाते हैं; फिर साधारण की तो बात ही क्या है?” 
(क्रमशः)

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