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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*जरणा का अंग ५/७*
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*जनि खोवे दादू रामधन, हृदय राख जनि जाइ ।*
*रतन जतन कर राखिये, चिन्तामणि चित लाइ ॥८॥*
दृष्टांत - प्राचीन -
रतन मुस्यो बहुमोल को, लुका जु मुरदा मांहि ।
चोट सहारी सेल की, ता पर कसका नांहि ॥६॥
एक राजा के यहां एक बहुमूल्य हीरा था । उसे एक चालाक चोर हरना चाहता था । फिर एक दिन वह चोर उस हीरे को चुरा कर भागा । ज्ञात होते ही राजा सेना के साथ उसके पीछे लगा । चोर को भी ज्ञात होगया कि मेरे पीछे सेना सहित राजा आ रहा है । आगे एक रणस्थल आया । वहां बहुत से मुरदे पड़े थे । चोर हीरा को कहीं छिपाकर अपने बचाव के लिये मुरदों में मुरदा के समान पड़ गया ।
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खोजियों के साथ सेना सहित राजा भी वहां आ पहुँचे । खोजियों ने कहा - खोज आगे नहीं जाते, चोर इन मुरदों में ही है । राजा ने आज्ञा दी सब मुरदों की जंघाओं पर एक - एक सेल की चोट मारो । जीवित होगा वह चिल्ला उठेगा । वैसा ही किया किन्तु चोर सेल की चोट से भी चिल्लाना तो दूर रहा । किंचित हिला भी नहीं ।
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खोजियों ने कहा - चोर अवश्य इन मुरदों में ही है । किन्तु महाराज उसे क्षमा भी करें और हीरा भी उससे न लेने की प्रतिज्ञा करें तो चोर अवश्य उठकर महाराज के पास आ जायगा । फिर राजा ने उक्त प्रकार उच्च स्वर से चोर को कहा तब वह उठ कर राजा के पास आ, प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये समाने खड़ा हो गया । राजा ने पू़छा - तुम सेल की चोट लगने पर भी नहीं हिले । इस में क्या कारण है ?
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चोर ने कहा -
लज्जा लगती शवों को, कर से जाता हीर ।
मिलता तन को दंड फिर, तातैं बना सुधीर ॥
उक्त चोर के समान ही चिन्तामणि रूप रामरत्न को दृढता से हृदय में रखना चाहिये । वर, शाप आदि के द्वारा नहीं खोना चाहिये । ऐसा करने से राम रूप राजा प्रसन्न होकर सब क्षमा करते हैं ।
(क्रमशः)
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