सोमवार, 9 दिसंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(स.दि.- ७/८)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
सप्तम दिन ~ 
आदि चित्त को अतिशय भावे, सेवे विधि बिन वह दुख पावे ।
समझ गई मैं ये भव भोगा, नहिं, सखि ! क्रिया योग कह लोगा ॥७॥ 
आं. वृ. - ‘‘पहले मन को बहुत अच्छे लगते हैं किन्तु विधि विधान का त्याग करके सेवन करने वाला अन्त में उनसे दु:खी ही होता है। बता वे क्या है?” 
वां. वृ. - ‘‘यह तो संसारिक भोग है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! ये तो क्रिया योग(यज्ञादिक कर्म) हैं। उनकी फल स्तुति देखकर प्रथम तो उनका करना मन को बहुत-अच्छा लगता है किन्तु विधि विधान में भूल होने से उनके द्वारा सुख के स्थान में दुख ही होता है। अत: तू तो कर्मकांड में न पड़कर, केवल भगवत् भजन ही करना।” 
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सखि ! एक हो होय विलावे, 
उसका अन्त कहूं नहिं आवे ।
जल बुदबुदा सखी ! मैं जानूं, 
नहिं, मैं तो संसार बखानूं ॥८॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक बारंबार प्रगट और लय होता रहता है किन्तु उसका अत्यन्ताभाव नहीं होता। बता वह कौन है?” 
वां. वृ. - ‘‘यह तो मैं जानती हूं, समुद्र जल का बुदबुदा है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! मैंने तो यह संसार कहा है। सभी संसारिक वस्तुएँ ऐसी हैं जो बनती बिगड़ती रहती हैं किन्तु किसी भी वस्तु का सर्वथा अभाव नहीं होता। ऐसे परिणामी संसार में तू अपना मन मत लगाना। क्योंकि यह शोकादिक का ही समुद्र है। सुख सिन्धु भगवान् में ही निज मन लगाना।”
(क्रमशः)

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