सोमवार, 9 दिसंबर 2013

को साधू रखे रामधन ५/२

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*जरणा का अंग ५/२*
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को साधू रखे रामधन, गुरु बाइक वचन विचार ।
महिला दादू क्यों रहै, मरकत हाथ गँवार ॥२॥
दृष्टांत-
इक नृप चाकर खा गया, टांग शशक की एक ।
त्रास दिई सिसका नहीं, साधु लियो शुध देख ॥१॥
एक दिन एक राजा शिकार को वन में गया था और एक नौकर को भी साथ ले गया था । वन में एक खरगोश मारकर नौकर को दिया और दूसरी शिकार को आगे बढ़ा । नौकर को बहुत भूख लगी थी, अतः उसने खरगोश की एक टांग तोड़कर खाली ।
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राजा लौटा और खरगोश के तीन टांग देखकर पू़छा - इसकी एक टांग कहां गई ? नौकर - इसके तो तीन ही थीं । राजा ने इस बात पर उसे बहुत पीटा किन्तु वह तो तीन ही बताता रहा । उस वन में एक संत रहते थे । उन्होंने उक्त चरित्र देखकर अपने मन में सोचा - इसने जैसे टांग पर एक निष्ठा ही रखी, बदला नही है । अतः यह भजन में भी ऐसे ही दृढ़ रह सकता है ।
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इसे राजा से लेकर भजन में लगाना चाहिये । वे राजा के पास जाकर बोले - यह आपकी सेवा करने योग्य नहीं है । अतः इसे मुझे दे दें । राजा देकर अपनी राजधानी को चला गया । उक्त प्रकार कोई विरले ही संत रामधन को सुरक्षित रख सकते हैं, सब नहीं । यह दृष्टांत साखी के पूर्वार्ध पर है ।
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द्वितीय दृष्टांत - साखी के तृतीय पाद -
"गहिला दादू क्यों रहै" पर है ।
साधु वस्तु दिई जाट की, हुक्का में कर प्यार ।
जरो नहीं बकने लगा, औरन लिई उतार ॥
एक संत ने एक जाट की सेवा से प्रसन्न होकर उसे दिव्य दृष्टी देने का विचार किया और एक दिव्य औषधि का टुकड़ा चिलम में रखकर उसे कहा - चिलम में अग्नि रखकर उसे मुख से खेंच । उसने अग्नि रखकर मुख से खेंची तो उसी समय उसकी दिव्य दृष्टी हो गई । उसे आकाश में चलने वाले विमान आदि दीखने लगे और अन्य भी भविष्य ज्ञान उसे होने लगे ।
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किन्तु वह अबोध था । इससे जो उसे दीखे या भविष्य ज्ञान हो उनको उच्च स्वर से बकने लगा । तब किसी अन्य ने उसकी वह सिद्धि छीन ली । उक्त प्रकार ही जो साधक अपनी साधना जन्य लाभ को वर शापादि के निमित्त से दूसरों को देता है, उसकी स्थिति उक्त जाट के समान ही होती है । जैसे मरकत मणि की दशा मूर्ख के हाथ में जाने से होती है, वैसे ही मूर्ख के हाथ से साधन जन्य लाभ की होती है ।
(क्रमशः)

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