卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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सप्तम दिन ~
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चक्र नहीं पर चक्र समाना,
खोजत मूल न चक्र पिछाना ।
यह आलात चक्र मैं जानी,
नहिं, जन्मादिक हैं दुख खानी ॥५॥
आं. वृ. - ‘‘एक चक्र तो नहीं है किन्तु चक्र के समान भासता है और उसका मूल कारण खोजने पर वह चक्र नहीं मिलता। बता वह क्या है?”
वां. वृ. - ‘‘आलात चक्र है। (जलती हुई लकड़ी को राषि में मंडलाकर घूमने से चक्र-सा भासता है, उसे ही आलात चक्र कहते हैं)।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं सखि ! यह तो जन्म-मरणादि रूप संसार चक्र है। यह चक्र समान भासता तो है किन्तु संसार के मूल परमात्मा के स्वरूप का विचार किया जाता है, तब यह संसार रूप न भासकर भगवत् स्वरूप ही भासता है। तू भी यदि अंत:करण शुद्ध करके उस ईश्वर के भजन में ही लगेगी तो यह संसार तुझे भगवत् स्वरूप होकर के ही भासेगा इसमें सन्देह ही नहीं है।”
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वसत नित्य पोषक के मांहीं,
तदपि फूल फल आवे नांहीं ।
समझ गई मैं बेंत सयानी,
विन करणी पंडित अभिमानी ॥६॥
आं. वृ. - ‘‘एक सदा पोषक तत्व में रहता है, तो भी उसके फूल फल नहीं आते। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘बेंत का वृक्ष है। वह जल में रहता है तो भी फूलता फलता नहीं।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! वह तो कर्तव्य-पालन से विमुख पंडित है। उसकी बुद्धि सदा शास्त्र में रहती है किन्तु भक्ति रूप फूल और ज्ञान रूप फल उसे नहीं प्राप्त होते। तू कभी भी कर्तव्य-पालन से विमुख न होना। कर्तव्य-पालन से विमुख प्राणी की उन्नति न होकर पतन ही होता रहता है।”
(क्रमशः)
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