गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
झूठे अंधे गुरु घणे, भरम दिढावैं आइ । 
दादू साचा गुरु मिलै, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ ॥१२५॥ 
टीका - ईश्वर - विमुखी कर्तव्याकर्तव्य से शून्य गुरु बहुत हैं, जो भ्रम - कर्म में निश्चय कराके संसारीजनों को जन्म - मरण में डालते हैं, किन्तु अच्छे भाग्य से जो सतगुरु मिल जावें, तो उनके उपदेश से जीव ब्रह्म - रूप हो जाता है ॥१२५॥ 
ता गुरु को का कीजिये, हरि बिन दिढवै आन । 
'जगन्नाथ' गुरु सो भला, भगवत भजन बखान । 
झूठे अंधे गुरु घणे, बँधे विषय विकार ।
दादू साचा गुरु मिल्या, सन्मुख सिरजनहार ॥१२६॥ 
टीका - विषय - विकार आदिकों में बँधे हुए ईश्वर - विमुखी और कर्तव्य - शून्य गुरु तो बहुत हैं, किन्तु सच्चे गुरु कोई - कोई हैं । परन्तु सौभाग्य से सतगुरु की प्राप्ति हो जावे, तो वह दयालु सतगुरु शिष्य को परमात्मा का साक्षात्कार अर्थात् परिचय करा देते हैं ॥१२६॥ 
झूठे अंधे गुरु घणे, भरम दिढ़ावैं काम । 
बँधे माया मोह सौं, दादू मुख सौं राम ॥१२७॥ 
टीका - कहैं कुछ और, करैं कुछ और । विचार रहित जो "मैं" और "मेरा" में फँसे पड़े हैं, किन्तु लोक दिखावा के लिए मुख से राम - राम कहते रहते हैं और अपने शिष्यों को कर्म - काण्ड का उपदेश देते हैं, ऐसे भेदवादी कहिए, जीव और ब्रह्म को अलग मानने वाले गुरु तो बहुत हैं ॥१२७॥ 
पांखडिन: पापरता नास्तिका: भेद बुद्धय: । 
स्त्री लम्पटा दुराचारा कृतघ्ना विषवृत्तय: ॥ 
कर्मभ्रष्टा: क्षमानष्टा निन्दकाऽनृतभाषिण: । 
एते तु गुरवस्त्याज्या: सर्वधर्म बहिष्कृता: ॥ 
झूठे अँधे गुरु घणे, भटकैं घर घर बार । 
कारज को सीझै नहीं, दादू माथै मार ॥१२८॥ 
टीका - नकली भेषधारी, ज्ञान - विज्ञान से रहित, इस लोक के ऐश्वर्य आदि सुख में फँसे हुए तथा जिनको मोक्ष - सुख की तो सिद्धि प्राप्त होती नहीं है, ऐसे झूठे गुरुओं को चौरासी लाख योनियों के शरीरों में भटकना पड़ता है । महाप्रभु कहते हैं कि ऐसे झूठे गुरुओं के सिर पर यमराज की मार पड़ती है अथवा ऐसे पुरुष त्यागने योग्य हैं ॥१२८॥ 
ज्ञानहीनो गुरुस्त्याज्यो, मिथ्यावादी विडम्बक: । 
स्वाविश्रान्तिं न जानाति परं निस्तारयेत् कथम् ॥ 
अबके गुरु घर - घर फिरैं, "दीक्षा हमारी लेहु, 
भावै डूबो, भावै तिरो, टको दोवटी देहु ॥" 
(श्री दादू वाणी ~ गुरुदेव का अंग)

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