गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

= १०० =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
साभार : Uma Anmangandla

What's the difference between giving up and surrendering? 
Giving up means you will no longer do your best and will no longer expect a specific great outcome. 

Surrendering means that you will continue to do your best, but will no longer be expecting a specific great outcome. 

You realize that the world works in mysterious ways that no one can predict, but welcome all experiences, knowing everything will work out in it's own way, in it's own time. 

Do your best n leave the rest.
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दादू मन फकीर मांही हुवा, भीतर लीया भेख ।
शब्द गहै गुरुदेव का, मांगै भीख अलेख ॥७०॥ 
टीका - सतगुरु के उपदेश से जिज्ञासुजनों का जो मन है, वह फकीर हुआ है अर्थात् सांसारिक विषयों से उदासीन हो गया । फकीर मन का भेष क्या है ? स्वस्वरूप में एकाग्र होना ही फकीर मन का भेष है । फकीर मन भीख क्या माँगता है ? सतगुरु के शब्द जो सत्य उपदेश हैं, उन्हें ग्रहण करना ही मानों फकीर मन की शिक्षा माँगने की झोली है और "जो न लखने में आवें" उस परमेश्वर के दर्शन की भिक्षा माँगता है ॥७०॥ 
मन मारै तन वश करै, शोधै आप शरीर । 
दया की कफनी पहर ले, ताका नाम फकीर ॥ 
फिकर सबको खात है, फिकर सबका पीर । 
फिकर का फाका करै, ताका नाम फकीर ॥ 
सांच शील संतोष सत, गिरिधर चारों भेष । 
राम भजो कितहुँ रहो, सर्व आपणा देश ॥ 
फकीरी करना अजब जगत में कार है । 
किसी को है गुलझार, किसी को ख्वार है ॥ 
किसी को है रूजगार, खुदा की मार है । 
जिनको है बेपरवाह फकीरी कीमियासार है ॥ 
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दादू मन फकीर सतगुरु किया, कहि समझाया ज्ञान । 
निश्चल आसन बैस कर, अकल पुरुष का ध्यान ॥७१॥ 
टीका - सतगुरु ने ज्ञान का उपदेश करके समझाया अर्थात् कर्तव्य - बोध कराके मन - फकीर को विषय - विकार आदि सांसारिक प्रपंचों से मुक्त किया है । इससे चंचल मन निश्चल होकर शांत आसन जो अन्त: करण है, तहाँ "बैस कर" अर्थात् एकाग्र चित्त हो करके, "अकल" कहिए - कला रहित, जिसमें घटने बढ़ने की कोई कला नहीं हैं, अजर-अमर ऐसा जो निरंजन निराकार प्रभु है, उसी का मन-फकीर ध्यान करने लगा है ॥७१॥
नाहिं रव - पुष्प समान प्रपंच, 
तू ईश कहां करता जु कहावै । 
साक्ष्य नहीं हम साक्ष्य स्वरूप न, 
दृश्य नहीं हक काहि जनावै ॥ 
बद्ध हु होय तो मोक्ष बनै अरु, 
होय अज्ञान तो ज्ञान नसावैं । 
ज्ञान वही कर्तव्य तजै तब, 
निश्चल होत हि निश्चल पावै ॥ 
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दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सतगुरु लीया लाइ ।
अहनिश लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाइ ॥७२॥ 
टीका - सतगुरु ने उपदेश से मन को फकीर किया, तो फकीर मन जगत् से अनासक्त हो गया है । इसलिए सतगुरु ने प्रसन्न होकर शिष्य को अपनी शरण में ले लिया और नाम उपदेश के द्वारा परमेश्वर में शिष्य की वृत्ति लगा दी है, जिससे आठों पहर एक अद्वितीय पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर में एकाग्र - चित्त हुआ । सहज कहिए - ध्यान - धारणा द्वारा सहजावस्था प्राप्त करके शून्य रस यानी निर्द्वन्द्व निर्विकल्परूप जो परमानन्द है, उसको उत्तम जिज्ञासु अनुभव करता है ॥७२॥ 
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दादू मन फकीर अैसैं, भया, सतगुरु के प्रसाद ।
जहाँ का था लागा तहाँ, छूटे वाद विवाद ॥७३॥ 
टीका - फकीर का मन शुद्ध चेतन का अंश था । श्री गुरुदेव की कृपा द्वारा परमेश्वर में एकाग्र हुआ, जिससे मन के सब संशय दूर हो गए ॥७३॥ 
(श्री दादू वाणी ~ गुरुदेव का अंग)

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