शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

दादू निबरा ना रहे ४/३११

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*परिचय का अंग ४/३११*
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दादू निबरा ना रहे, ब्रह्म सरीखा होइ ।
लै समाधि सर पीजिये, दादू जब लग दोइ ॥३११॥
दृष्टांत -न्यारे ने हीरा लह्यो, फिर भी हेरत ठौर ।
बहुर्यों बुझी बादशाह, अब क्यों ढूंढत और ॥२५॥
एक दिन एक बादशाह, हाथी पर बैठा मार्ग से जा रहा था । मार्ग मैं एक न्यारिया को भूमि खोजते हुये देख कर पास में बैठे हुये व्यक्ति से पू़छा - यह रेता क्यों छान रहा है ? उसने कहा - गरीब है इस कार्य से इसे कुछ मिल जाता है, इसलिये छान रहा है ।
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बादशाह की जेब में एक बहुमूल्य रत्न था । बादशाह ने उस का दारिद्र मिटाने के लिये उसकी दृष्टी से बचाकर वह रत्न रेती में डाल दिया । वह उसे थोड़ी देर में ही मिल गया । एक सप्ताह के बाद बादशाह फिर उधर आया तो न्यारिया को पहले के समान रेता छानते देखकर पू़छा - अमुक दिन तुझे रेते में कु़छ मिला था । उसने कहा - एक बहुमूल्य रत्न मिला था । बादशाह - फिर रेता क्यों छानता है ? न्यारिया - सरकार ! जिस कार्य में ऐसे बहुमूल्य रत्न मिलें, उस कार्य को कैसे छोड़ा जा सकता है ?
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यह उक्त ३११ की साखी में कहा है । ब्रह्म के समान होकर भी जिस लै समाधि रूप साधन से ब्रह्म प्राप्त हुआ है, उसे जब तक शरीर रूप से भिन्न है तब तक ब्रह्मानन्द रस का पान करने के लिये करते ही रहना चाहिये । निबरा ना रहै - उसे छोड़ना नहीं चाहिये । उसे छोड़ने से जगदाकार वृत्ति होगी और उससे विक्षेप ही होगा ।
(क्रमशः)

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