शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(ष.दि.- २४/२८)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
षष्ठम दिन ~ 
सखी ! एक अति सुन्दर भासे, 
किन्तु अन्त में देखत नासे ।
यह गंधर्व नगर मैं जानी,
नहिं, यह तो संसार सयानी ॥२४॥
आं. वृ. - ‘‘एक अति सुन्दर दीखता है किन्तु अन्त में देखते-देखते ही नष्ट हो जाता है। बता वह क्या है?” 
वां. वृ. - ‘‘गंधर्व नगर है। सूर्य उदय न हो तब तक तो दिखता है। फिर सूर्य की धूप तेज होते ही नष्ट हो जाता है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो संसार है। आत्म ज्ञान नहीं होता तब तक तो सुन्दर भासता है किन्तु ब्रह्मज्ञान होने पर संसार, संसार रूप से नहीं भासता। ब्रह्म रूप से भासता है। सखि ! इस प्रतीति मात्र संसार में तू अपना मन मत फँसाना। निरन्तर भगवत् चिन्तन करते हुये मन भगवत् स्वरूप में ही स्थिर करने का प्रयत्न करना। यह मानव शरीर बारंबार न मिलकर महान पुण्यों से प्राप्त होता है और भगवत् प्राप्ति ही इसका लक्ष्य है। अत: कभी भी प्रमाद मत करना।”
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आं. वृ. - 
‘‘सखी ! समय पर ध्यान दे, करने हैं घर काम ।
जा अब प्रति कारज समय, भजते रहना राम ॥२५॥”
वां. वृ. - 
चो.- ‘‘सखी ! सुधा सम तेरी बानी,
सुनत-सुनत मम मति न अघाती ।
श्रवण करन की इच्छा मेरी, 
किन्तु जाऊँ आज्ञा है तेरी ॥२६॥”
कवि - 
कर प्रणाम घर को चली, पथ के जीव बचाय ।
करन लगी कर्तव्य सम, सभी काम हर्षाय ॥२७॥
सबको सुख देते हुये, प्रति क्षण सुमिरत राम ।
सो सुषुप्ति में पहुचकर, करन लगी विश्राम ॥२८॥
इति श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता में षष्ठम दिन वार्ता समाप्त: ।
(क्रमशः)

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