शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

= ८७ =

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卐 सत्यराम सा 卐 
मिश्री मांही मेल कर, मोल बिकाना बंस ।
यों दादू महँगा भया, पारब्रह्म मिल हंस ॥१८६॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे मिश्री में मिलकर बांस भी मिश्री के भाव में बिक जाता है । इसी प्रकार मुक्तजन भी परब्रह्म में मिलकर परब्रह्म रूप हो जाते हैं ॥१८६॥ 
"पीपा" पारस परसतां, लोहा कंचन होइ । 
सिद्ध की संगति बैसतां, साधक भी सिद्ध जोइ ॥
जल "जगन्नाथ" कुठौर का, सुरसरी मिलि पिबंत । 
जाइ कालिमा लौह की, पारस परस तुरंत ॥ 
मीठे मांही राखिये, सो काहे न मीठा होइ ।
दादू मीठा हाथ ले, रस पीवै सब कोइ ॥१८७॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे चीनी को जल में मिला देवें, तो जल भी मीठा हो जाता है और सब कोई पान करते हैं, इसी प्रकार सत्संग में चित्तवृत्ति एकाग्र करके जिज्ञासुजन ब्रह्मज्ञानी हो जाते हैं । आनन्द - स्वरूप में अन्तःकरण की वृत्ति की लय लगाकर सब ही संत आत्म - साक्षात्कार रूपी रस पीते हैं ॥१८७॥ 
सत्संगति - कुसंगति
मीठे सौं मीठा भया, खारे सौं खारा ।
दादू ऐसा जीव है, यहु रंग हमारा ॥१८८॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मिश्री मिलाने से तो जल मीठा होता है और नमक मिलाने से खारा हो जाता है । यही हमारा "रंग" कहिए, हाल है । ऐसे ही जलरूप जीव, मिश्रीरूपी सत्संगति मिलने से ब्रह्मरूप हो जाता है और नमक रूप कुसंग से पामर या खारा हो जाता है । इसलिए सभी को मिश्रीरूप सत्संग करना चाहिए ॥१८८॥ 
"याति रम्यं अरम्यत्वं स्थिरं अस्थिरतामपि । 
यथा दृष्टं तथा मन्ये याति साधुः असाधुताम् ॥" योगवासिष्ठ 
सूत्र: ॐ दुस्संग: सर्वथैव त्याज्यः ।
(मनुष्य को कुसंग का सब प्रकार परित्याग करना चाहिए ।)
मूरख संग न कीजिये, लौहा जल न तिराइ । 
कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तिहुँ भाइ ॥ 
(स्वाति बूँद कदली मैं कपूर, सीप में मोती और सर्पमुख में गिरकर विष बन जाती है ।)
"जगन्नाथ" ढ़िंग नीच के, दीरघ लघु हो जाइ ।
ज्यूं गयन्द तन तनिक सा, दर्पण में दरसाइ ॥ 
साध महिमा महात्म्य
मीठै मीठे कर लिये, मीठा मांही बाहि ।
दादू मीठा ह्वै रह्या, मीठे मांहि समाहि ॥१८९॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सदुपदेश करने वाले सतगुरुओं ने सत्संग में संलग्न करके उत्तम जिज्ञासुओं को ब्रह्मस्वरूप बना दिये हैं और मुक्तजन "मीठे मांहि समाहि" कहिए, ब्रह्म में अभेद होकर ब्रह्मरूप हो रहे हैं ॥१८९॥ 

"मोहन" रोटी खांड की, मिश्री रस दीठा । 
ऐसा हरि का नाम है, सबही दिशि मीठा ॥ 
(श्री दादू वाणी ~ परिचय का अंग)
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साभार : Gyan-Sarovar(ज्ञान-सरोवर)

लोहे की एक छड़ का मूल्य होता है २५० रुपये...
-- इससे घोड़े की नाल बना दी जाये तो इसका मूल्य हो जाता है १००० रुपये...
-- इससे सुईयां बना दी जायें तो इसका मूल्य हो जाता है १०००० रुपये..
-- इससे घड़ियों के बैलेंस स्प्रिंग बना दिए जायें तो इसका मूल्य हो जाता है १००००० रुपये... --
"आपका अपना मूल्य-- इससे निर्धारित नहीं होता कि आप क्या है
बल्कि इससे निर्धारित होता है कि आप में खुद को क्या बनाने की क्षमता है"!!!!

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