शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

= १८३ =

卐 सत्यराम सा 卐
वार पार नहिं नूर का, दादू तेज अनंत । 
कीमत नहीं करतार की, ऐसा है भगवंत ॥ 
निरसंध नूर अपार है, तेज पुंज सब मांहि । 
दादू जोति अनंत है, आगो पीछो नांहि ॥ 
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साभार : Kripa Shankar B ~ 
आध्यात्म जगत में कोई भी उपलब्धी अंतिम नहीं होती| जिसे आप खजाना मानकर खुश होते हो, कुछ समय पश्चात पता लगता है कि वह कोई खजाना नहीं बल्कि कंकर पत्थर का ढेर मात्र था| 
आध्यात्मिक अनुभूतियाँ अनंत हैं| जैसे जैसे आप आगे बढ़ते हो पीछे की अनुभूतियाँ महत्वहीन होती जाती हैं| यहाँ तो बस एक ही काम है कि बढ़ते रहो, बढ़ते रहो और बढ़ते रहो| पीछे मुड़कर ही मत देखो| 
अन्य कुछ भी मत देखो, कहीं पर भी दृष्टी मत डालो; सिर्फ और सिर्फ आपका लक्ष्य ही आप के सामने निरंतर ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे| फिर चाहे कितना ही अन्धकार हो उसकी कृपा से आपका मार्ग दिखाई देता रहेगा|

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