सोमवार, 16 जून 2014

= १९१ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू चिन्ता राम को, समर्थ सब जाणै । 
दादू राम संभाल ले, चिंता जनि आणै ॥ 
दादू चिन्ता कियां कुछ नहीं, चिंता जीव को खाइ । 
होना था सो ह्वै रह्या, जाना है सो जाइ ॥ 
दादू एक बेसास बिन, जियरा डावांडोल । 
निकट निधि दुःख पाइये, चिंतामणि अमोल ॥ 
दादू बिन बेसासी जीयरा, चंचल नांही ठौर । 
निश्चय निश्चल ना रहै, कछू और की और ॥ 
दादू होना था सो ह्वै रह्या, स्वर्ग न बांछी धाइ । 
नरक कनै थी ना डरी, हुआ सो होसी आइ ॥ 
दादू होना था सो ह्वै रह्या, जनि बांछे सुख दुःख । 
सुख मांगे दुख आइसी, पै पीव न विसारी मुख ॥ 
दादू होना था सो ह्वै रह्या, जे कुछ किया पीव । 
पल बधै न छिन घटै, ऐसी जानी जीव ॥ 
दादू होना था सो ह्वै रह्या, और न होवै आइ । 
लेना था सो ले रह्या, और न लिया जाइ ॥ 
ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह । 
साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥ 
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साभार : Vipin Tyagi ~ 
इनसन का जीवन काँटेदार पेड़ के पास उगे केले के पौधे के समान है । जिस प्रकार हवा चलने पर केले के पत्ते काँटेदार पेड़ द्वारा छलनी हो जाते हैं । उसी तरह चिन्ता के झोंके इनसान को हरदिन पीड़ित करते रहते हैं । 
हम चिन्ता क्यों करते हैं? चिन्ता के पीछे डर छिपा होता है कि कोई अनहोनी या अप्रिय बात न हो जाये - ऐसा न हो जाए, वैसा न हो जाए । यह डर क्यों होता है ? यह डर अज्ञानता और अविश्वास से उत्पन्न होता है । अगर मन को विश्वास हो जाये कि परमेश्वर द्वारा बनायी दुनिया में कुछ ग़लत नहीं हो सकता, तब हम चिन्ता किस बात की कर सकते हैं ? इसी प्रकार अगर मन में विश्वास हो जाए कि संसार में जो कुछ हो रहा है, कर्म और फल के नियम के अनुसार हो रहा है और कभी कुछ भी अकारण नहीं हो सकता है, तब भी हम निश्चिन्त हो जाते हैं । 

चिन्ता हमारा कुछ बना नहीं सकती, बिगाड़ बहुत कुछ सकती है । कैसे ? चिन्ता दीमक की तरह अंदर ही अंदर जीव को खाती रहती है । चिन्ता रूपी नागिन ज्ञान और विश्वास के अमृत को नाश करके जीव के अन्दर अज्ञानता और अविश्वास का ज़हर भर देती है । यह पल-पल जीव के अन्दर व्यर्थ दुविधाओं और शंकाओं के बीज बोती रहती है । यह मनुष्य को मानसिक पतन की तरफ ले जाती है । इससे मनुष्य की हालात से लड़ने की शक्ति नष्ट हो जाती है । चिन्ता-ग्रस्त व्यक्ति न तो सांसारिक कार्य पूरी शक्ति से कर सकता है और न ही परमार्थ में तरक्की कर सकता है । चिन्ता स्वयं लगाया रोग है । हमें कुल-मालिक में पूर्ण विश्वास रखते हुए साहस, निडरता और दृढ़ता से स्वार्थ और परमार्थ दोनों में आगे बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये । 

गुरु तेग बहादुर साहिब जीव को सावधान करते हुए कहते हैं: 
चिंता ता की कीजीऐ जो अनहोनी होइ ॥ 
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नही कोइ ॥५१॥(SGGS 1429) 
People become anxious, when something unexpected happens. This is the way of the world, O Nanak; nothing is stable or permanent. ||51|| 
आपजी कहते हैं कि चिन्ता तभी करनी चाहिये जब कोई अनहोनी बात हो सकती हो । परिवर्तन संसार का नियम है और यह संयोग और वियोग के नियम के अनुसार चल रहा है । कर्म और फल का नियम अटल है । इसलिए चिन्ता में डूबे रहने की बजाय कुल मालिक का हुक्म मानते हुए हर तरह के हालात में खुश रहना चाहिये । 

कबीर साहिब कहते हैं कि मुझे चिन्ता करने की क्या ज़रुरत है क्योंकि मेरा हरि मेरी चिन्ता करता है । 
कबीर क्या मैं चिंतहूँ, मम चिन्ते क्या होय । 
मेरी चिंता हरि करै, चिंता मोहिं न कोय ॥ (कबीर साखी - संग्रह, पृ ७३) 
चिन्ता सर्वव्यापक रोग है । क्या कभी आपका कोई ऐसा क्षण गुज़रा है जब आप पूर्ण चिन्ता-रहित हों ? सारा संसार चिन्ता की आग में जल रहा है । 

गुरु नानक साहिब कहते हैं: 
चिंतत ही दीसै सभु कोइ ॥ 
चेतहि एकु तही सुखु होइ ॥ 
चिति वसै राचै हरि नाइ ॥ 
मुकति भइआ पति सिउ घरि जाइ ॥२३॥ (SGGS 932) 
Everyone has worries and cares. He alone finds peace, who thinks of the One Lord. When the Lord dwells in the consciousness, and one is absorbed in the Lord's Name, one is liberated, and returns home with honor. ||23|| 
गुरु साहिब कह रहे हैं कि पूरा संसार ही चिंताग्रस्त है । वो ही सुखी है जो हरि की तरफ से चेता हुआ है और वह मुक्त होकर उसके धाम में चला जाता है । एक अन्य प्रसंग में गुरु अर्जुन देव जी फरमाते हैं: 
जिसु ग्रिहि बहुतु तिसै ग्रिहि चिंता ॥ 
जिसु ग्रिहि थोरी सु फिरै भ्रमंता ॥ 
दुहू बिवसथा ते जो मुकता सोई सुहेला भालीऐ ॥१॥ (SGGS 1019) 
The household which is filled with abundance - that household suffers anxiety. One whose household has little, wanders around searching for more. He alone is happy and at peace, who is liberated from both conditions. ||1|| 
जिस घर में मालिक ने ज़्यादा माया दे रखी है वह आशंकित है कि कब टैक्स की धाड़ पद जाए, कहीं कोई माया को चुरा न ले । जिसके घर में माया नहीं है वह माया पाने के लिए चिंतित है । वही चिन्ता से मुक्त है जो इन अवस्थायों से ऊपर उठ चुका है । 

किसी को पैसा कमाने की चिन्ता है । किसी को सन्तान न होने की चिन्ता है, तो कोई सन्तान के कारण कई चिन्ताओं से ग्रस्त है । किसी को लड़कियों की शादी की चिन्ता है, तो कोई विधवा बहू की चिन्ता से परेशान है । व्यापारी व्यापार से सम्बन्धित , किसान खेती से सम्बन्धित और विद्यार्थी पढ़ाई से सम्बन्धित चिन्ताओं से परेशान है । जिन्हें ऊँची पदवी नहीं मिलती, वे तो चिन्तित हीं लेकिन जिन्हें ये पदवियाँ मिल जाती हैं, वे भी अनेक प्रकार की चिन्ताओं से ग्रस्त हैं । बच्चा-बूढ़ा, औरत-मर्द, अमीर-गरीब, अनपढ़-विद्वान सब चिन्ता का शिकार हैं । 

सन्त-महात्मा सावधान करते हैं कि जीव को अपनी आत्मा की पहचान के लिए संसार में भेजा गया है । जीव परमात्मा की तरफ से दिए गए काम को करने की चिन्ता तो करता नहीं है बल्कि संसार की अन्य बेफजूल चिन्ताओं में मशगूल रहता है । प्रारब्ध अटल है, इसलिये सांसारिक, वस्तुओं और पदार्थों की चिन्ता में समय बर्बाद करने का कोई लाभ नहीं । 

कबीर साहिब कहते हैं: 
सुभ और असुभ करम पूरबले, रती घटै न बढ़ै । 
होनहार होवै पुनि सोई चिन्ता काहे करै ॥ (कबीर शब्दावली, भाग २, पृ १) 
कर्म की जननी इच्छा है और इच्छा की पूर्ति की चिन्ता दुखों की जननी है । जब तक हम इच्छा और वासना से मुक्त नहीं होते, तब तक चिन्ताओं से भी मुक्त नहीं हो सकते । इच्छा की जड़ काटने वाली शक्ति प्रभु का प्रेम और प्रेम का नाम है । गुरु रामदास जी कहते हैं: 
नामु मिलै मनु त्रिपतीऐ बिनु नामै ध्रिगु जीवासु ॥ 
कोई गुरमुखि सजणु जे मिलै मै दसे प्रभु गुणतासु ॥ (SGGS 40) 
Receiving the Naam, the mind is satisfied; without the Naam, life is cursed. If I meet the Gurmukh, my Spiritual Friend, he will show me God, the Treasure of Excellence. 
जब नाम रूपी अमृत की प्राप्ति हो गयी तो मन की सारी इच्छाएँ और तृष्णाएँ शान्त हो गयी । इसलिए कबीर साहिब कहते हैं: 
चिंता तो सतनाम की और न चितवे दास । 
जो कुछ चितवे नाम बिन सोई जम की फांस ।। 
कुल मालिक के भक्तों को राम-नाम की कमाई के अलावा और किसी बात की चिंता नहीं होती है । 

परमात्मा कहता है कि मुझे तेरी चिन्ता तुमसे अधिक है । तुम्हारी चिन्ता तुम्हारा कुछ नहीं सँवार सकती । तुम सिर्फ इस बात की चिन्ता करो कि तुम्हारे अंदर मेरा प्रेम भरोसा रहे । यदि तुम्हारे अंदर मेरा प्रेम-भरोसा है तो तुम्हें कुछ भी चिन्ता करने की ज़रुरत नहीं | 
हम संसार में भी देखते हैं कि माता-पिता अपने प्यारे बच्चों की सारी चिंताएँ अपने ऊपर ले लेते हैं । वे हमेशा बच्चों को निश्चिन्त और प्रसन्न देखना चाहते हैं, इसी तरह वह परम दयालु पिता हमारे चिन्ता करने से नहीं, हमारे प्रेम और भरोसे से प्रसन्न होता है । चिन्ता अविश्वास की निशानी है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ पूरा भरोसा होता है । जिस हृदय में प्रभु का प्रेम और विश्वास है, उस हृदय में चिन्ता के लिए कोई भी स्थान नहीं हो सकता ।

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