गुरुवार, 31 जुलाई 2014

= २८ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू अमली राम का, रस बिन रह्या न जाइ । 
पलक एक पावै नहीं, तो तबहिं तलफ मर जाइ ॥ 
दादू राता राम का, पीवै प्रेम अघाइ । 
मतवाला दीदार का, मांगै मुक्ति बलाइ ॥ 
आंगण एक कलाल के, मतवाला रस मांहि ।
दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नांहि ॥ 
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साभार : Bharat Bendwal

प्रार्थना प्रेम का परिष्कार है। प्रार्थना की सुगंध है। प्रेम अगर फूल तो प्रार्थना फूल की सुवास। प्रेम थोड़ा स्थूल है, प्रार्थना बिलकुल सूक्ष्म है। 
प्रेम के जगत में तो शायद शब्दों को थोड़ा लेन-देन हो जाये, प्रार्थना के जगत में तो शब्द बिलकुल ही व्यर्थ हो जाते हैं। वहां तो मौन ही निवेदन करना होता है। 
तू पूछती है : प्रार्थना कैसे करें ? 
प्रार्थना कोई विधि नहीं है। ध्यान की तो विधि होती है, प्रार्थना की कोई विधि नहीं होती। प्रार्थना तो स्वस्फूर्त है, सहज भाव है। जो विधि से करेगा प्रार्थना, उसकी प्रार्थना तो व्यर्थ हो गयी; उसकी प्रार्थना तो नकली हो गयी; प्रथम से ही झूठी हो गयी। 
प्रार्थना तो आंख खोलकर, हृदय को खोलकर इस जगत में जो महा-उत्सव चल रहा है, इसके साथ सम्मिलित हो जाने का नाम है। वृक्ष हरे हैं, तुम भी हरे हो जाओ- प्रार्थना हो गयी ! फूल खिले हैं, तुम भी खिल जाओ-प्रार्थना हो गयी। सूर्य निकला है, तुम भी जग जाओ-प्रार्थना हो गयी। हवाएं नाच रही हैं, तुम भी नाचो-प्रार्थना हो गयी। 
प्रार्थना का कोई ढंग नहीं, रूप नहीं, आकार नहीं, व्यवस्था नहीं। प्रार्थना तो मस्ती है, उन्मत्तता है, दीवानगी है। प्रार्थना तो परमात्मा की शराब को पी लेने का नाम है। 
बस मत कर देना अरे पिलानेवाले ! 
हम नहीं विमुख हो वापस जानेवाले ! 
अपनी असीम तृष्णा है-तेरा वैभव 
अक्षय है अक्षय- अरे लुटानेवाले ! 
हम अलख जगाने आए तेरे दर पै ! 
हम मिट मिट जाने आए तेरे दर पै ! 
इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे ! 
मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे ! 
हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के 
हो जायें अमर-ऐं अमर हमें तू वर दे ! 
है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का; 
परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का ! 
फिर और! यहां पर पाना ही है खोना 
हंसकर पीने में छिपा प्यास का रोना 
चलने दे, सुख के दौर अरे चलने दे ! 
भर जाये दुख से उर का कोना-कोना ! 
अपना असीम अस्तित्व दिखा दे हमको ! 
बस लय हो जाना अरे सिखा दे हमको ! 
तेरी मदिरा का बूंद -बूंद दीवाना ! 
हम नहीं जानते अपना हाथ हटाना ! 
इस पथ का अथ है नहीं, न इसकी इति है 
गति है, गति है, गति है बस बढ़ते जाना ! 
किस ओर चले, है हुआ कहां से आना ? 
किसने जाना, निज को किसने पहचाना ? 
माना कि कल्पना और ज्ञान है-माना ! 
पर अविश्वास का, भ्रम का यहीं ठिकाना ! 
है एक आवरण, बुना हुआ जिस में 
दिन-रात और सुख-दुख का ताना-बाना ! 
उस ओर ? व्यर्थ का यह प्रयास-जाने दे ! 
पाने दे, हम को मुक्ति हमें लाने दे ! 
निज आत्मघात कर जग को पछताने दे ! 
इस रिक्त पात्र को भर-दे, भर दे, भर दे ! 
मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे ! 
हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के 
हो जायें अमर-ऐं अमर, हमें तू वर दे ! 
है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का 
परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का ! 
प्रार्थना है अपने भिक्षापात्र को अस्तित्व के सामने फैला देना प्रार्थना है अपने आचल को चाँद -तारों के सामने फैला देना। 
कहने की बात नहीं। प्रार्थना एक भाव-दशा है, वक्तव्य नहीं। कोई हरे कृष्ण हरे राम, ऐसा कहने से प्रार्थना नहीं होती। कि ‘अल्ला ईश्वर तेरे नाम, सबको सनमति दे भगवान’, ऐसा कहने से प्रार्थना नहीं होती ! प्रार्थना मौन निवेदन है। 
प्रार्थना झुकने की कला है। जहां झुक जाओ घुटने टेककर पृथ्वी पर, वहीं प्रार्थना है। प्रार्थना अंतरतम की बात है। शायद आंसू टपके, या शायद गीत फूटे-कौन जाने ! कि शायद नाच उठो, के पैरों में घूंघर बौध लो, कि बासुरी उठाकर बजाने लगो-कौन जाने ! कि चुप हो जाओ, कि बिलकुल चुप जाओ, कि वाणी सदी को खो जाये-कौन जाने ! 
प्रत्येक को प्रार्थना अनूठे ढंग से घटती है। एक की प्रार्थना दूसरे की प्रार्थना नहीं होती। इसलिए प्रार्थना की नकल मत करना। और वहीं अड़चन हो गयी है। हमें प्रार्थनाएं सिखा दी गयी हैं-हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की, ईसाइयों की। कोई पढ़ रहा है गायत्री; दोहराये जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है नमोकार मंत्र; दोहराये जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है कुरान की आयतें। सुंदर हैं वे आयतें और सुंदर हैं वे मंत्र और प्यारे हैं उनके अर्थ; मगर प्रार्थना इतने से नहीं होती। 
उधार नहीं होती प्रार्थना। प्रार्थना तो तुम्हारे हृदय का बहाव है। 
सुशीला! सौंदर्य के प्रति संवेदना को बढ़ाओ, फिर प्रार्थना अपने से पैदा होगी। संगीत सुनो-झरनों का, वृक्षों से गुजरती हुई हवाओं का, किसी वीणा पर किसी वीणावादक का। संगीत सुनो सुबह पक्षियों का, कि रात सन्नाटे में झींगुरों का। सौंदर्य देखो-वृक्षों का, चाद -तारों का, पशुओं का, पक्षियों का, मनुष्यों का ! जहां-जहां तुम्हें सौंदर्य का, संगीत का, लयबद्धता का, रसमयता का बोध हो, वहां-वहां अपने हृदय को खोलकर बैठ जाओ। 
वहीं मंदिर है, वहीं तीर्थ है। धीरे - धीरे प्रार्थना का स्वाद लग जायेगा। 
मैं नहीं कह सकता प्रार्थना क्या है। मैं इतना ही कह सकता हूं कि प्रार्थना कैसी परिस्थिति में अनुभव होती है। संवेदनशीलता की जितनी गहराई बढ़ेगी उतनी ही प्रार्थना अनुभव होगी। फिर जब जगेगी प्रार्थना, तो तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी होगी। उस पर बस तुम्हारे हस्ताक्षर होंगे। और ईश्वर तक वही प्रार्थना पहुंचती है जो तुम्हारी है, अपनी है, निजी है। उधार बातें वहां तक नहीं पहुंचतीं।

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