सोमवार, 28 जुलाई 2014

१४२. देहुरे मंझे देव पायो

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१४२. परिचय । राजमृगांक ताल
देहुरे मंझे देव पायो, वस्तु अगोचर लखायो ॥टेक॥
अति अनूप ज्योति - पति, सोई अन्तर आयो ।
पिंड ब्रह्माण्ड सम, तुल्य दिखायो ॥१॥
सदा प्रकाश निवास निरंतर, सब घट मांहि समायो ।
नैन निरख नेरो, हिरदै हेत लायो ॥२॥
पूरव भाग सुहाग सेज सुख, सो हरि लैन पठायो ।
देव को दादू पार न पावै, अहो पै उन्हीं चितायो ॥३॥
सांभर में एक दिन भोपा(देवजी का भक्त साधु) आया था । उसका नाम चाँद था । उसने अपनी कमर में मोट - मोटे घुंघरे बाँध रखे थे । वह दादूजी के पास भी आया । दादूजी ने उसका रंग ढंग देखकर तथा गायन सुनकर कहा - भाई ! तुम देवजी का यश तो गाते हो किन्तु जब तक आशा नष्ट नहीं होती तब तक देवजी का दर्शन होना कठिन है । तब चाँद ने प्रणाम करके कहा - आप ही कृपा करके वैसा साधन बताइये । तब दादूजी ने उक्त १४२ का पद कहा था । पद का अर्थ समझकर चाँद दादूजी के शिष्य होकर अच्छे संत हो गये थे ।

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