बुधवार, 30 जुलाई 2014

४ . देहात्म विछोह को अंग ~ ८

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*४. देहात्म विछोह को अंग* 
.
*माई तौ पुकार छाती कूटि कूटि रोवत है,*
*बाप हू कहत मेंरौ नन्दन कहां गयौ ।* 
*भइया कहत मेरी बांह आज दूरि भई,* 
*बहन कहत मेरै बीर दुख है दयौ ॥* 
*कांमिनी कहत मेरी सीस सिरताज कहां,* 
*उनि ततकाल हाथ में सिंधौरा है लयौ ।* 
*सुन्दर कहत ताहि कोऊ नहिं जानि सकै,* 
*बोलत हुतौ सु यह छिन मैं कहां गयौ ॥८॥* 
इस देह से प्राण निकल जाने के बाद, एक ओर, माँ अपनी छाती कूट कूट कर रो रही है कि मेरा पुत्र कहाँ गया । पिता भी रोता हुआ चिल्ला चिल्ला कर पूछ रहा है कि मेरा नन्दन(पुत्र) कहाँ गया । 
भाई एक ओर खड़ा होकर कह रहा है कि इसके चले जाने से मानो मेरे शरीर की एक भुजा ही टूट कर पृथक् हो गयी ! बहन कहती है कि मेरे भाई ने मुझसे बिछुड़ कर मुझ को अत्यन्त कष्ट दे दिया । 
उधर उसकी स्त्री उसके लिये विलाप करती हुई पूछ रही है मेरे 'माथे का मुकुट' कहाँ गया । यह कहते हुए, उसने उसके पीछे सती होने के लिए, सती - प्रथा के सिन्दुर आदि सभी साधनों का पिटारा अपने हाथ में ले लिया है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - परन्तु उन में से यह कोई नहीं जान सका उस शरीर में बोलने वाला क्षणमात्र में ही कहा चला गया ॥८॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें