बुधवार, 30 जुलाई 2014

२५६. मन मूरखा ! तैं योंही जन्म गँवायो

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२५६. उपदेश चेतावनी । रंग ताल
मन मूरखा ! तैं योंही जन्म गँवायो,
सांई केरी सेवा न कीन्हीं, इहि कलि काहे को आयो ॥टेक॥
जिन बातन तेरो छूटिक नाँहीं हीं, सोइ मन तेरे भायो ।
कामी ह्वै विषया संग लागो, रोम रोम लपटायो ॥१॥
कुछ इक चेति विचारि देखो, कहा पाप जीय लायो ।
दादू दास भजन कर लीजे, स्वप्नै जग डहकायो ॥२॥
एक समय दादूजी रमते हुये नारायण नगर में पधारे थे और कु़छ शिष्यों के साथ मार्ग से जा रहे थे । फाल्गुण मास था । मार्ग में बखना को होली के गीत गाते देखा तथा सुन्दर कंठों की आवाज सुनकर तथा सुन्दर शरीर देखकर उक्त २५६ का पद बोला था । पद सुनकर बखना तत्काल गाना बजाना छोड़कर दादूजी के चरणों में आ पड़ा और बोला - भगवन् ! आपने बड़ी कृपा की जो मेरे अज्ञानधिकार को नष्ट करने वाला पद सुनाया । अब आप मुझे अपने ध्यान और ज्ञान को बताने की कृपा करें ।
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तब दादूजी ने २६४ का पद -
हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यों पावै ।
वार पार, पार वार, दुस्तर तिर आवै हो ॥टेक॥
भवन गवन, गवन भवन, मन ही मन लावै ।
रवन छवन, छवन रवन, सतगुरु समझावै हो ॥१॥
क्षीर नीर, नीर क्षीर, प्रेम भक्ति भावै ।
प्राण कँवल विकस विकस, गोविन्द गुण गावै हो ॥२॥
ज्योति जुगति बाट घाट, लै समाधि ध्यावै ।
परम नूर परम तेज, दादू दिखलावै हो ॥३॥
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उक्त पद का अर्थ समझकर बखना दादूजी के शिष्य हो गये और बोले -
म्हारा गुरां कह्यो सोइ कर स्यां हो,
खार समुद्र में मीठी वेरी, सीधे घड़ले भरस्यां हो ॥
इहिं कूवे को को पनिहारी, को को लेज१ न टूटी हो ।
पाणी लगैं पहुँती नाहीं, ठाली ठिलियाँ फूटी हो ॥१॥
आगे जो पणिहारी होती, ताँनैं गुरु भर देता हो ।
निगुणी - गारी या पणिहारी, रह्यो परींड़ो रीतो हो ॥२॥
पांच तिसाया कूवे खंदाया, तांकी तृष्णा भागी हो ।
गुरु को शब्द छेवड़े बांध्यो, लेज पहुँचण लागी हो ॥३॥
ऐसा पाणी और न जाणी, जिहिं पीयां तिस भागे हो ।
‘बखना’ नैं गुरु दादू पाया, पीवत मीठा लागे हो ॥४॥
यह पद चार पाद का है । इसका अर्थ देखना चाहैं तो श्रीदादूचरितामृत बिन्दु १०पृष्ठ २१८ में पढें । ग्रन्थ वृद्धि के भय से इस ग्रंथ में अर्थ नहीं दिया जाता है ।

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