॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*११. मन को अंग*
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*देखै न कुठौर ठौर कहत औरे की और,*
*लीन जाइ होत हाड़ मांस हू रकत मैं ।*
*हरत बुराई सर औसर न जानै कछु,*
*धका आइ देत रांम नांम सौं लगत मैं ॥*
*बाहे सुर असुर बहाये सब भेष जिनि,*
*सुन्दर कहत दिन घालत भगत मैं ।*
*और ऊ अनेक अन्तराय ही करत रहै,*
*मन सौ न कोऊ है अधम या जगत मैं ॥६॥*
*चन्चल मन भक्ति मार्ग में बाधक* : यह(मन) उचित अनुचित स्थान आदि का विचार न कर जब चाहे जैसा बोलने लगता है । और जब चाहे तब हड्डी और मांस एवं एवं रक्त निर्मित वस्तुओं(नारियों) में आसक्त होने लगता है ।
समय, कुसमय का विचार न कर यह दूसरों की निन्दा करने में सर्वदा सन्नद्ध रहता है । यहां तक कि हरिभजन में लगे सन्त जनों को भी समय असमय धक्का देकर च्युत करने में भी कोई संकोच नहीं करता ।
इसने अच्छे अच्छे साधनारत, देवता, असुर एवं साधु महात्माओं को सन्मार्ग से च्युत कर दिया है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह भक्तिमार्ग में नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित करता रहता है । अतः हम समझते हैं - इस संसार में मन से बढ़कर नीच अन्य कोई नहीं है ॥६॥
(क्रमशः)
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