मंगलवार, 21 अक्टूबर 2014

= १५१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
ज्यों ज्यों होवै त्यों कहै, घट बध कहै न जाइ । 
दादू सो सुध आत्मा, साधू परसै आइ ॥ 
साधु सदा संयम रहै, मैला कदे न होइ । 
दादू पंक परसै नहीं, कर्म न लागै कोइ ॥ 
साध सदा संयम रहै, मैला कदे न होइ । 
शून्य सरोवर हंसला, दादू विरला कोइ ॥ 
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Path of Saints (Sant Marg) 
एक महात्मा अपने एक भक्त के घर तीन दिन के लिए अतिथि बने । उसके छोटे लड़के की शादी हुए थोड़ा ही समय हुआ था । उसने छोटी बहू को स्वामीजी के लिए खाना बनाने को कहा । 
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बड़ी बहू ईर्ष्यालु और अभिमानी थी। ससुर द्वारा छोटी बहू को खाना पकाने के लिए कहना उसे अच्छा नहीं लगा। छोटी बहू ने दाल-चूरमे का भोजन बनाया। बड़ी बहू ने ईर्ष्यावश चुपचाप दाल में एक मुट्ठी भर नमक डाल दिया। वह अपनी देवरानी को नीचा दिखाना चाहती थी। 
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स्वामीजी बहुत ज्ञानी थे। पहले ग्रास में ही उन्हें जेठानी की ईर्ष्या का अनुभव हो गया। उन्होंने कहा- 'आज दाल अच्छी बनी है। छोटी बहू पाक कला में बहुत पारंगत प्रतीत होती है, आज सिर्फ दाल खाऊंगा।' सुनकर जेठानी उदास हो गई। उसने सोचा- शायद दाल पहले फीकी होगी, इसलिए स्वामीजी को अधिक नमक का अनुभव नहीं हुआ। 
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दूसरे दिन छोटी बहू ने फिर दाल-चूरमे का भोजन बनाया। बड़ी बहू ने अवसर देखकर चूरमे में मुट्ठी भर बालू रेत मिला दी। सोचा, आज तो देवरानी की निंदा जरूर होगी। पर स्वामीजी पहुंचे हुए संत थे। उन्होंने एक ग्रास लेते ही कहा- 'आज तो चूरमा बहुत अच्छा बना है, सिर्फ चूरमा खाऊंगा।' 
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जेठानी का मन ईर्ष्या की आग में जलकर राख हो गया। उसने हाथ जोड़कर कहा- 'स्वामीजी कल मेरे हाथ का बना भोजन करने की कृपा करें।' 
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स्वामीजी ने कहा- 'दो दिनों से तुम्हारे हाथ का ही तो खा रहा हूं।' यह सुनकर बड़ी बहू बहुत लज्जित हुई। वह स्वामीजी के चरणों में गिर पड़ी। 

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